SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 228
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पूज्यपाद-श्रावकाचार १९५ अकारैर्न बिना शब्दास्तेऽपि ज्ञानप्रकाशकाः । तद्- रक्षामं च षट्ट्ट्याने मौनं श्रीजिनभाषितम् ॥३९ घमं चतुविषं प्राहुर्दानपूजादिभेदतः । तत्रान्नाभयभेषन्यशास्त्रदानप्रभेदतः ॥४० अनवानं द्विधा प्रोक्तं पात्रापात्रविभेदतः । त्रिधा भवति तत्पात्रमुत्तमाविप्रभवतः ' ॥४१ महाव्रतानि यः पन बिभत्यंत्र स संयमी । निष्कषायो जितानङ्गः स भवेत्पात्रमुत्तमम् ॥४२ यः समः सर्वसत्वेषु स्वाध्यायध्यानतत्परः । निर्मुक्तः सर्वसङ्गेभ्यस्तमाहुः पात्रमुत्तमम् ॥४३ सम्यक्त्वव्रतसम्पन्नो जिनधर्मप्रकाशकः । मध्यमं पात्रमित्याहुविरताविरतं बुधाः ॥४४ केवलं यस्य सम्यक्त्वं विद्यते न पुनव्रतम् । तं जघन्यमिति प्राहुः पात्रं निर्मलबुद्धयः ॥४५ व्रतसम्यक्त्वनिर्मुक्तो रागद्वेषसमन्वितः । सोऽपात्रं भण्यते जैनैर्यो मिथ्यात्वपटावृतः ॥४६ उप्तं यथोपरे क्षेत्रे बीजं भवति निष्फलम् । तथाऽपात्राय यद्दत्तं निष्फलं तत्र संशयः ॥४७ आमपात्रगतं क्षीरं यथा नश्यति तत्समम् । तथा तदप्यपात्रेण समं नश्यति निश्चयः ॥४८ जायते दन्दशूकस्य वत्तं क्षीरं यथा विषम् । तथाऽपात्राय यद्दतं तद्विषं भोजनं भवेत् ॥४९ एकमेव जलं यद्वदिक्षो मधुरतां व्रजेत् । निम्बे कटुकतां तद्वत्पात्रापात्राय भोजनम् ॥५० हैं ||३८|| अक्षरोंके विना पद-वाक्यादिरूप शब्द नहीं होते, अतः वे भी ज्ञानके प्रकाशक हैं । इसलिए ज्ञानकी रक्षाके लिए छह स्थानोंपर मौन रखना श्री जिन भगवान्ने कहा है ||३९|| दान, पूजा आदि (शील और उपवास) के भेदसे श्रावक धर्मं चार प्रकारका कहा गया है। उनमें आहार, अभय, भैषज्य और शास्त्र दानके मेदसे दान चार प्रकारका है ||४०|| पात्र और अपात्र के मेदसे अन्न दान दो प्रकारका कहा गया है। पात्र भी उत्तम, मध्यम और जघन्यके भेदसे तीन प्रकारके होते हैं ॥४१॥ जो पंच महाव्रतोंको धारण करता है, संयमी है, कषाय-रहित है और काम-विजेता है, ऐसा साधु उत्तम पात्र है || ४२ || जो सर्व प्राणियोंपर समभावका धारक है, स्वाध्याय और ध्यान में तत्पर रहता है और सर्व प्रकारके परिग्रहसे निर्मुक्त है, उसे उत्तम पात्र कहते हैं ||४३|| जो सम्यक्त्व और श्रावकव्रतोंसे सम्पन्न है, जिनधर्मका प्रकाशक है, ऐसे विरताविरत गृहस्थको ज्ञानीजन मध्यम पात्र कहते हैं ||४४|| जिसके केवल सम्यक्त्व है, किन्तु व्रत नहीं हैं, ऐसे अव्रत सम्यग्दृष्टि जीवको निर्मल बुद्धिवाले आचार्यं जघन्य पात्र कहते हैं ॥४५॥ जो व्रत और सम्यक्त्वसे रहित है, राग-द्वेषसे संयुक्त है और मिथ्यात्वरूप वस्त्रसे आवृत है, ऐसे मनुष्यको जैनोंने अपात्र कहा है || ४६ || जैसे ऊसर खेतमें बोया गया बीज निष्फल जाता है, उसी प्रकार अपात्र के लिए जो दान दिया जाता है, वह भी निष्फल जाता है, इसमें कोई संशय नहीं है ॥४जी जिस प्रकार मिट्टीके कच्चे पात्रमें रखा गया दूध नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार अपात्रमें गया दान भी उसीके साथ नष्ट हो जाता है, यह निश्चित है ||४८|| जैसे सर्पको दिया गया दूष विष हो जाता है, उसी प्रकार अपात्रके लिए जो भोजन दिया जाता है, वह भी विष हो जाता है ॥४९॥ जिस प्रकार एक हो प्रकारका जल इक्षुमें मधुरताको और नीममें कटुकताको प्राप्त होता है, उसी १. ब यह श्लोक नहीं है । २. वे छह स्थान इस प्रकार हैं-भोजन, पूजन, मैथुन सेवन, मलमूत्र विसर्जन, गमन और आवश्यक क्रिया करते समय मौन रखे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy