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________________ श्रावकाचार-संग्रह न्यग्रोषस्य यथा बीजं स्तोकं सुक्षेत्रमध्यगम् । बहुविस्तीर्णतां याति तद्वद्दानं सुपात्रगम् ॥५१ सौधर्माविषु कल्पेषु भुज्यन्ते स्वेप्सितं सुखम् । मानवाः पात्रदानेन मनोवाक्काययोगतः ॥५२ दिव्यदेहप्रभावत्वात्सप्तधातुविजितः । गर्भोत्पत्तिर्न तत्रास्ति दिव्यदेहस्ततो मतः ॥५३ हंसतूलिकयोमध्ये जीवः संक्रामति क्षणात् । कुमारोऽन्तर्मुहूर्तेन भूत्वा षोडशवार्षिकः ॥५४ मृद्वी च द्रव्यसम्पन्ना मातृयोनिसमानिका । सुखानां तु खनिः प्रोक्ता तत्पुण्यप्रेरिता स्फुटम् ॥५५ रत्ननिर्मितहर्येषु दिव्यशय्यासु सर्वदा । भुज्यन्ते दिव्यकन्याभिः समं स्वर्गेऽमराः सुखम् ॥५६ तस्मावत्रत्य जायन्ते चक्रिणोवार्धचक्रिणः । इक्ष्वाकादिषु वंशेषु पात्रदानफलान्नराः ॥५७ सज्जातिः सद्-गृहस्थत्वं पारिवाज्यं सुरेन्द्रता । साम्राज्यं परमाहत्वं निर्वाणं चेति सप्तधा ॥५८ मिच्यादृशोऽपि वानं ते दत्वा पात्राय भुञ्जते । दशाङ्गकल्पवृक्षेभ्यः सत्सुखं भोगभूमिषु ॥५९ बग्वस्त्रपानतुर्याङ्गा भूषणाहारगेहदाः । ज्योतिर्भाजनदीपाङ्गा दशाङ्गा कल्पपादपाः ॥६० केचित्कुपात्रदानेन कर्णप्रावरणादिषु । भोगभूमिषु कुत्सासु जायन्ते तासु मानवाः ॥६१ खजूरपिण्डखजूरकदलोशकरोपमान् । मृदिक्ष्वादिकभोगांश्च भुञ्जते नात्र संशयः ॥६२ ततः कुत्सितदेवेषु जायन्ते पापपाकतः । ततः संसारगर्तेषु पञ्चधा भ्रमणं सदा ॥६३ प्रकार पात्रमें दिया दान अमरत्वको और अपात्रमें दिया दान विषत्वको प्राप्त होता है ॥५०॥ जैसे उत्तम क्षेत्रमें बोया गया छोटा सा भी वटका बीज बहुत विस्तारको प्राप्त होता है, उसी प्रकार सुपात्रमें गया अल्प भी दान पुण्यके महान् विस्तारको प्राप्त होता है ॥५१॥ मन वचन कायसे दिये गये पात्रदानके द्वारा मनुष्य सौधर्मादिक स्वर्गों में मनोवांछित सुखको भोगते हैं ।।५२।। दिव्य देहके प्रभावसे उन देवोंका शरीर सप्त धातुओंसे रहित होता है । वहाँपर गर्भसे उत्पत्ति नहीं होती है, इसलिए उनका दिव्य देह माना गया है ॥५३॥ देवोंमें उत्पन्न होनेवाला जीव हंसतूलिकाके मध्यमें क्षण भरमें उत्पन्न होकर और एक अन्तर्मुहूर्तसे सोलह वर्षका कुमार बनकर बाहिर निकलता है ॥५४॥ उनकी उपपादशय्या मातृयोनिके समान द्रव्यसे सम्पन्न, अतिकोमल और सुखोंको खानि कही गयी है, जो स्पष्ट ही उनके पुण्यसे प्रेरित है ।।५५।। स्वर्ग में देवगण रत्न-निर्मित भवनोंके भीतर दिव्यशय्याओंपर दिव्य कन्याओंके साथ यथेच्छ सुख भोगते हैं ॥५६॥ पुनः वे जीव स्वर्ग लोकसे यहींपर आकर पात्रदानके फलसे इक्ष्वाकु आदि उत्तम वंशोंमें चक्री या अर्धचक्री उत्पन्न होते हैं ॥५७।। इस प्रकार सुपात्रदानके फलसे जीव सज्जातित्व, सद् गृहस्थत्व, पारिवाज्य, सुरेन्द्रत्व, साम्राज्य, परमाहत्त्व और निर्वाण इन सात प्रकारके परम स्थानोंको क्रमसे प्राप्त होते हैं ॥५॥ मिथ्यादृष्टि मनुष्य भी सुपात्रके लिए दान देकरके भोगभूमियोंमें दशाङ्ग कल्पवृक्षोंसे उत्पन्न हुए उत्सम सुखको भोगते हैं ।।५९॥ वे दशाङ्ग कल्पवृक्ष माला, वस्त्र, पानक, वाद्य, आभूषण, आहार, गह, ज्योति, भाजन और दीप प्रदान करते हैं ॥६०॥ कितने ही मनुष्य कुपात्रदानसे कर्णप्रावरणादिक कुभोगभूमियोंमें उत्पन्न होते हैं ॥६१।। वहाँपर वे खजूरपिंड, केला और शक्करके समान मिष्टफलोंको, मृत्तिका और इक्षु आदिके भोगोंको भोगते हैं, इसमें संशय नहीं है ॥२॥ पुनः वे नीच जातिके देवोंमें उत्पन्न होते हैं। तदनन्तर पापके परिपाकसे संसार-गोंमें पड़कर सदा पंच प्रकारके परिवर्तन करते हुए दुःख भोगते हैं ॥६३।। इसलिए खोटे पात्रको छोड़कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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