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________________ श्रावकाचार-संग्रह परिमाणवतं ग्राह्यं दिक्षु सर्वासु सर्वदा । स्वशक्त्याऽऽत्मगुरोः पाद्यं तदाद्यं स्याद गुणव्रतम् ।।२६ इयतीक्ष्मां गमिष्यामि कृतसंख्यादिमध्यतः । इत्युक्त्वा गम्यते यत्र द्वितीयं स्याद् गुणवतम् ॥२७ केकिमण्डलमार्जारविषशस्त्राग्निरज्जवः' । न दातव्या इमे नित्यं तृतीयं स्याद् गुणवतम् ॥२८ आर्तरौद्रं परित्यज्य त्रिषु कालेषु सर्वदा । वन्द्यो भवति सर्वज्ञस्तच्छिक्षाव्रतमादिगम् ॥२९ चतुर्दश्यामथाष्टम्यां प्रोषधः क्रियते सदा । शिक्षाक्तं द्वितीयं स्यान्मुनिमार्गविधानतः ॥३० यानभूषणमाल्यानां ताम्बूलाहारवाससाम् । परिमाणं भवेद्यत्तदाहुः शिक्षाव्रतं बुधाः ॥३१ संविभागोऽतिथीनां च कर्तव्यो निजशक्तितः । स्वेनोपाजितवित्तेन तच्छिक्षाव्रतमन्तिमम् ।।३२ गुणवतं त्रिधा शिक्षाव्रतं स्याच्च चतुर्विधम् । शीलसप्तकमित्येतद् भाषितं मुनिपुङ्गवैः ॥३३ अणुक्तानि यो धत्ते शीलसप्तकमप्यसौ। अतिकः 'प्रोच्यते सद्भिः सप्तव्यसनजितः ॥३४ द्यूतं मांसं सुरा वेश्या परदाराभिलोभनम् । मृगया सह चौर्येण स्युः सप्त व्यसनानि वै ॥३५ शृङ्गवेरं तथानन्तकाया विल्वफलं सदा। पुष्पं शाकं च सन्धानं नवनीतं च वर्जयेत् ॥३६ मांसरक्ताऽर्द्रचर्मास्थिपूयदर्शनतस्त्यजेत् । मृताङ्गिवीक्षणादन्नं प्रत्याख्यातान्नसेवनात् ॥३७ मौनाद् भोजनवेलायां ज्ञानस्य विनयो भवेत् । रक्षाणं चापमानस्य तद्वदन्ति मुनीश्वराः ॥३८ पास स्वशक्तिके अनुसार सर्व दिशाओंमें सर्वदाके लिए परिमाण व्रत ग्रहण करना चाहिये, यह प्रथम गुणवत है ॥२६॥ दिव्रतमें किये गये परिमाणके भी भीतर आज मैं इतनी भूमितक जाऊंगा, ऐसा कहकर स्वीकृत प्रदेशमें जाना तो द्वितीय अणुव्रत है ॥२७॥ मयूर, कुक्कुर, मार्जार आदि हिंसक प्राणियोंको नहीं पालना, तथा विष, शस्त्र, अग्नि और रस्सी आदिक दूसरोंको कभी नहीं देना चाहिये, यह तृतीय गुणवत है ।।२८|| आर्त और रौद्रध्यान छोड़कर तीनों सन्ध्याकालोंमें सर्वज्ञदेवकी सदा वन्दना करना चाहिये, यह प्रथम शिक्षावत है ॥२९॥ चतुर्दशी और अष्टमीको मुनि मार्गके विधानसे सदा प्रोषधोपवास करना चाहिये, यह द्वितीय शिक्षाव्रत है ॥३०॥ वाहन, भूषण, माला, ताम्बूल, आहार और वस्त्रोंका जो परिमाण किया जाता है, उसे ज्ञानिजन तीसरा शिक्षाव्रत कहते हैं ॥३१।। अपने उपार्जित धनमेंसे अपनी शक्तिके अनुसार अतिथिजनोंका विभाग करना चाहिये, यह अन्तिम शिक्षाव्रत है ।।३२।। तीन गुणव्रत और चार शिक्षाक्तको श्रेष्ठ मुनियोंने 'शील सप्तक' इस नामसे कहा है ।।३३।। जो गृहस्थ पाँच अणुव्रतोंको और शील सप्तकको भी धारण करता है और सप्त व्यसनोंसे रहित है, उसे सन्तजन व्रती श्रावक कपते हैं |३४|| जूआ, मांस, मदिरा, वेश्या, परदारा अभिलोभन और चोरीके साथ शिकार खेलना, ये सात व्यसन होते हैं ॥३५॥ शृगवेर (अदरक) तथा कन्दमूल आदि सभी अनन्तकाय वनस्पति, वेलफल, पुष्प, शाक, सन्धानक (अचार-मुरब्बा) और नवनीत, इनका सदा त्याग करे ॥३६॥ मांस, रक्त, गीला चमड़ा, हड्डी और पीव देखकर भोजनको छोड़े, भोजनमें मरे हुए प्राणीको देखकर अन्नका त्याग करे, तथा त्यागे हुए अन्नका भूलसे सेवन होनेपर भोजनका परित्याग करे ॥३७॥ भोजनके समय मोन रखनेसे ज्ञानका विनय होता है, तथा अपमानसे भी अपनी रक्षा होती है, ऐसा मुनीश्वर कहते २१. व शस्त्रकृशानवः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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