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________________ पूज्यपाद - श्रावकाचार अता अपि सम्यक्त्वे ये दृढा न प्रयान्ति ते । स्त्रीनपुंसक तिर्यक्त्वं नारकत्वं दरिद्रताम् ॥१३ मद्यमांसमधुत्यागैः सहोदुम्बरपञ्चकैः । गृहिणां प्राहुराचार्या अष्टौ मूलगुणानिति ॥१४ न वेत्ति मद्यपानाच्च स्मरणेन विकलीकृतः । स्वमातरं योषितया समत्वमेव मन्यते ॥ १५ विवेकबुद्धिहीनतां करोति देहिनां वधम् । ततो विवेकिभिर्जनैः सुरा निषिध्यते सदा ॥१६ रक्तमात्रप्रवाहेण स्त्री निन्द्या जायते स्फुटम् । द्विधातुजं पुनर्मांसं पवित्रं जायते कथम् ॥ १७ प्राणिनां देहजं मांसं तद्विघातं विना न तत् । प्राप्यते कारणात्तस्माद् वर्जयेन्मांसभक्षणम् ॥१८ माक्षिकं जन्तुसङ्कीर्णं मधुजालविघाततः । यज्जायतेऽङ्गिरक्षार्थं तस्मात्तत्यजते बुधैः ॥ १९ स्थूलाः सूक्ष्मास्तथा जीवाः सन्त्युदुम्बरमध्यगाः । तन्निमित्तं जिनोद्दिष्टं पञ्चोदुम्बरवर्जनम् ॥ २० देवतामन्त्रसिद्धयर्थं पर्वण्योषधकारणात् । न भवन्त्यङ्गिनो हिस्याः प्रथमं तदणुव्रतम् ॥२१ लाभलोभभयद्वेषैव्यलीकवचनं पुनः । सर्वथा यज्ञ वक्तव्यं द्वितीयं तदणुव्रतम् ॥ २२ पतितं विस्मृतं नष्टमुत्पये पथि कानने । वर्जनीयं परद्रव्यं तृतीयं तदणुव्रतम् ॥२३ परेषां योषितो दृष्ट्वा निजमातृसुतासमाः । कृत्वा स्वदारसन्तोषं चतुर्थं तवणुव्रतम् ||२४ दासीदासरथान्येषां स्वर्णानां योषितां तथा । परिमाणव्रतं ग्राह्यं पञ्चमं तदणुव्रतम् ॥२५ 1 १९३ लक्षण है ॥१२॥ व्रत-रहित भी जो जीव सम्यक्त्वमें दृढ़ रहते हैं, वे स्त्री, नपुंसक, तिर्यंच और नारकपर्यायको तथा दरिद्रतावाली मनुष्य पर्यायको नहीं प्राप्त होते हैं ||१३|| मद्य मांस और मघु के त्यागके साथ पाँच उदुम्बर फलोंके त्यागको आचार्यं गृहस्थोंके आठ मूल गुण कहते हैं || १४ || मद्यपानसे मनुष्य भले-बुरेको नहीं जानता है, वह स्मरण शक्तिसे विकल होकर अपनी माताको स्त्रीके समान ही मानता है || १५|| यह मद्यपान विवेक बुद्धिको हीनताको और प्राणियोंके वधको करता है, अतः विवेकी मनुष्य मदिराका सदा निषेध करते हैं ||१६|| जब मासिक धर्मके समय केवल रक्तके प्रवाहसे स्त्री स्पष्टतः निन्द्य हो जाती है, तब द्विघातुज अर्थात् माता-पिताके रज और वीर्यरूप दो धातुओंसे उत्पन्न हुआ मांस कैसे पवित्र हो सकता है ||१७|| मांस प्राणियोंके देहसे उत्पन्न होता है, अतः वह प्राणि-घातके विना प्राप्त नहीं होता है । इस कारण से मांस भक्षण छोड़ना चाहिये ||१८|| माक्षिक (मधु ) अनेक जन्तुओंसे व्याप्त है और मधुजालके विघातसे उत्पन्न होता है, इसलिए ज्ञानीजन प्राणियोंकी रक्षाके लिए उसका त्याग करते हैं ||१९|| उदुम्बर फलोंके भीतर अनेक स्थूल और सूक्ष्म जीव होते हैं, उनकी रक्षाके निमित्त जिनदेवने पांचों उदुम्बरों का त्याग करना कहा है ||२०|| पवं विशेषमें देवता और मंत्रकी सिद्धिके लिए, तथा औषधिके निमित्तसे भी प्राणियोंकी हिंसा नहीं करना चाहिये, यह प्रथम अणुव्रत है ॥२१॥ लाभ, लोभ, भय और द्वेषसे असत्य वचन सर्वथा नहीं कहना चाहिये, यह द्वितीय अणुव्रत है ||२२|| उन्मार्गमें, राजमार्गमें और वनमें गिरे, भूले या नष्ट हुए परद्रव्यका त्याग करना चाहिये, यह तृतीय अणुव्रत है || २३ || दूसरोंकी स्त्रियोंको अपनी माता (बहिन) और पुत्रीके समान देखकर अपनी स्त्रीमें सन्तोष करना यह चतुर्थ अणुव्रत है ||२४|| दासी, दास, रथ, सुवर्णं, स्त्रिय, तथा अन्य क्षेत्र, वास्तु आदि परिग्रहका परिमाण व्रत ग्रहण करना चाहिये, यह पंचम अणुव्रत है ॥२५॥ अपने गुरुके २५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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