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________________ १९. विकाचार-संबह इत्येवं कविता सम्यक् कायसल्लेखना वरा। तया युक्ताः मावकाश्च लभन्ते परमा गतिम् ॥४६३ एवं व्रतं मया प्रोक्तं त्रयोदशविधियुतम् । निरतीचारकं पाल्यन्ते तेऽतीचारास्तु सप्ततिः ॥४६४ सूत्रे तु सप्तमेऽप्युक्ताः पृथग नोक्तास्तदर्थतः । अवशिष्टः समाचारः सोऽत्र वे कथितो ध्रुवम् ॥४६५ वर्शनज्ञानचारित्र: धावको हितमिच्छति । तदादौ व्यसनं त्याज्यं सप्तभेदं च गहितम् ॥४६६ घृतं मांसं सुरा वेश्याऽखेटचौर्येऽतिहिते । पराङ्गना च सप्तेति व्यसनानि विवर्जयेत् ॥४६७ समाधमपि यच्चित्ते विधत्ते चूतमास्पदम् । युधिष्ठिर इवाप्नोति व्यापदं स दुराशयः ॥४८ पलाहको वारुणीतो नष्टाश्व यदुनन्दनाः । चारुः कामुकया नष्टः पापद्धर्या ब्रह्मदत्तभाक् ॥४६९ चौर्यत्वाच्छिवभूतिश्च दशास्योऽन्यस्त्रिया हतः । एकैकव्यसनान्नष्टा एवं सर्वनं किं भवेत् ।।४७० अन्यान्यपि च दुष्कर्माणि कुत्सितजनैः सह । सङ्गमादीनि सर्वाणि दूरतः परिवजयेत् ।।४७१ वृद्धसेवा विधातव्या नानं पाठयं निरन्तरम् । हितं कार्यमकायं चाहितं पुनरथोत्तमम् ॥४७२ जगत्स्यातं विदन्नाशु किं प्रमाद्यति यो जनः । अथवानादिकालीनमोहतः किं करोति न ।।४७३ भल्याभल्येषु मूढो वा कुत्याकृत्येषु बालिशः । शास्त्रश्रवणतोऽप्यतः कथं पापं करोति ना ।।४७४ रहित होकर हर्षके साथ शरीरका परित्याग करे ।।४६२॥ इस प्रकार उत्तम सम्यक्काय सल्लेखनाका कथन किया। इससे संयुक्त श्रावक परम गति मोक्षको प्राप्त करते हैं ।।४६३।। इस प्रकार मैंने संन्यास और बारह व्रत इस तेरह प्रकारकी विधिसे युक्त श्रावकव्रतका वर्णन किया । जो अतिचाररहित इन व्रतोंका पालन करते हैं, वे स्वर्गके सुख भोगकर अन्तमें मोक्षको प्राप्त करते हैं। उक्त तेरह व्रत और सम्यग्दर्शन इनके एक-एक व्रतके पांच-पांच अतीचार होते हैं, जो सब मिलकर सत्तर हो जाते हैं। इनको तत्त्वार्थसूत्रके सातवें अध्यायमें कहा गया है, अतः यहाँपर पृथक्से नहीं कहा है। श्रावकका शेष समाचार यहाँपर निश्चयसे कहा गया है ।।४६४-४६५।। जो श्रावक सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रके द्वारा आत्महित करना चाहता है, उसे सबके आदिमें लोक निन्द्य सात मेदरूप व्यसनोंका त्याग करना चाहिए ॥४६६।। द्यूत, मांस, मदिरा, वेश्या, आखेट (शिकार), चोरी और परस्त्री सेवन ये सात अतिनिन्द्य व्यसन हैं, श्रावक इन्हें छोड़े ॥४६७।। जो मनुष्य आधे क्षणके लिए भी अपने चित्तमें द्यूतको स्थान देता है, अर्थात् जुआ खेलनेका भाव करता है, वह दुष्टहृदय पुरुष युधिष्ठिरके समान आपत्तिको प्राप्त होता है ॥४६८|| मांस खानेसे बंकराजा नष्ट हुया। मदिरापानसे यादव नष्ट हुए। वेश्या सेवनसे चारुदत्त और शिकार खेलनेसे ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती नष्ट हुआ ॥४६९।। चोरीसे शिवभूति और परस्त्रीसे रावण मारा गया । ये सब एक एक व्यसनके सेवनसे नष्ट हुए। जो पुरुष सभी व्यसन करेंगे, उनकी क्या दुर्दशा न होगी? अर्थात् सर्वव्यसनसेवी तो और भी महान् दुःखोंको पावेंगे ॥४७०॥ इन व्यसनोंके अतिरिक्त अन्य भी जितने दुष्कर्म हैं, और खोटे जनोंके साथ संगति आदि है उन सबका दूरसे ही परित्याग करना चाहिए ॥४७१।। इसके अतिरिक्त श्रावकोंको सदा वृद्धजनोंकी सेवा करनी चाहिए, निरन्तर ज्ञानका अभ्यास करना चाहिए और हितकारी कार्य करना चाहिए। किन्तु अहितकारी उत्तम भी कार्य नहीं करना चाहिए ।।४७२।। जो मनुष्य जगत्प्रसिद्ध हित-अहितको जानता है, वह क्या आत्महित करने में प्रमाद करेगा? नहीं करेगा। अथवा अनादिकालीन मोहसे मोहित हुया प्राणी क्याक्या बनर्थ नहीं करता है ।।४७३।। जो मनुष्य भक्ष्य-अभक्ष्यपदार्थोंमें मूढ़ है, कृत्य और अकृत्यमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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