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________________ उमास्वामि-श्रावकाचार १८९ दुभिक्षे दुस्तरे व्याधौ वृद्धत्वे दुःसहेऽथवा। महावैरकरे वैरिबले हन्तुं समुद्यते ॥४५० तपोध्वंसविधौ मृत्युकाले वा समुपस्थिते । सल्लेखना विधातव्या संसारभयभीरुभिः ॥४५१ संन्यासमरणं बान-शोलभावतपःफलम् । निगदन्ति यतस्तस्मिन्नतो यत्नो विधीयताम् ॥४५२ पुत्रमित्रकलत्रादौ स्नेहं मोहं धमादिषु । द्वेषं द्विषत्समूहेषु हित्वा संन्यासमाधयेत् ।।४५३ कारितं यत्कृतं पापं तथानुमतमञ्जसा । तदालोच्य गुरूपान्ते निःशल्यः क्षपको भवेत् ।।४५४ यदकार्षमहं दुष्टमतिकष्टकरं त्रिधा । तत्सर्व सर्वदा सद्भिः क्षम्यतां मम दुष्टताम् ।।४५५ ।। इत्युक्त्वा मूलतश्छित्वा रागद्वेषमयं तमः । आदवीत गुरूपान्ते क्षपको हि महाव्रतम् ॥४५६ कालुष्यमरति शोकं हित्वाऽऽलस्यं भयं पुनः । प्रसाधं चितमत्यन्तं ज्ञानशास्त्रामृताम्बुभिः ।।४५७ हित्वा निःशेषमाहारं क्रमातस्तैस्तपोबलैः । तनुस्थिति ततः शुद्धदुग्धपानैः समाचरेत् ॥४५८ किद्भिर्वासरहित्वा स्निग्धपानमपि क्रमात् । खरपानं गृहीतव्यं केवलस्थितिसाधनम् ॥४५९ खरपानं विहायाथ शुद्धाम्भःपानमाचरेत् । अपहाय च तत्पानमुपवासमुपाधयेत् ॥४६० दर्शनज्ञानचारित्रतपश्चरणलक्षणाम् । आराधनां प्रसन्नेन चेतसाराधयेत्सुधीः ॥४६१ स्मरन् पञ्चनमस्कारं चिदानन्दं च चिन्तयन् । दुःखशोकविमुक्तात्मा हर्षतस्तनुमुत्सृजेत् ॥४६२ चाहिए ।।४४९।। भयंकर दुर्भिक्ष, व्याधि, असह्य बुढ़ापाके आनेपर, अथवा महावैर करनेवाले शत्रुसेनाके मारनेके लिए समुद्यत होनेपर, तपके विध्वंसक कारण निकट आनेपर अथवा मरण-समय उपस्थित होनेपर संसारके भयसे डरनेवाले श्रावकोंको सल्लेखना धारण करना चाहिए ॥४५०-४५१॥ यतः ज्ञानीजन दान शीलभाव और तप धारण करनेका फल संन्यासमरण कहते हैं, अतः संन्यास मरणमें प्रयत्न करना चाहिए ॥४५२।। पुत्र, मित्र और स्त्री आदिमें स्नेहको, धन-धान्यादिमें मोहको और शत्रु-समूहोंमें द्वेषको छोड़कर संन्यासका आश्रय लेना चाहिए ॥४५३॥ इस जीवनमें जो पाप स्वयं किये हों, दूसरोंसे कराये हों, अथवा पाप करनेवालोंकी अनुमोदना की हो, उन सबकी गुरुके समोप निश्चयसे आलोचना करके समाधिमरणके लिए उद्यत क्षपकको निःशल्य हो जाना चाहिए ॥४५४।। मैंने जो दुष्ट और अतिकष्टकारी कार्य मन वचन कायसे आप लोगोंके साथ किये हैं, मेरी उस सब दुष्टताको आप सर्व सज्जन लोग सर्वदाके लिए क्षमा करें ॥४५५॥ इस प्रकार स्वजन, परिजन आदि सबसे कहकर और राग-द्वेषमयी अन्धकारको मूलसे छेदनकर गुरुके समीप महाव्रतको अंगीकार करे ॥४५६।। तत्पश्चात् कलुषता, अरति, शोक, भय, और आलस्यको छोड़कर शास्त्रज्ञानामृतरूप जलसे चित्तको अत्यन्त प्रसन्न करे ।।४५७॥ पुनः क्रमसे उन-उन आगम-प्रतिपादित तपोबलोंसे सर्व आहारको छोड़कर तदनन्तर शरीरकी स्थितिके लिए शुद्ध दुग्ध पान करे ।।४५८॥ पुनः क्रमसे कितने ही दिनोंके द्वारा स्निग्ध दुग्धपानको भी छोड़कर शरीरस्थितिका साधन केवल तक आदि खर पानको ग्रहण करे ॥४५९।। तत्पश्चात् खर पानको भी त्यागकर केवल शुद्ध जलका पान करे । पुनः जलपानको भी छोड़कर उपवासका आश्रय स्वीकार करे ॥४६०॥ उस उपवासकी दशामें वह बुद्धिमान् क्षपक दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपश्चरण स्वरूप चार आराधनाका प्रसन्न मनसे आराधन करे ।।४६१॥ पुनः जब जीवनका अन्त समय प्रतीत हो, तब पंचनमस्कारमन्त्रका स्मरण और चिदानन्द मात्माका चिन्तवन करते हुए दुःख-शोकादिसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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