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________________ १८८ श्रावकाचार संग्रह स्वयमेवातति व्यक्तव्रतोऽपि सदनं प्रति । भिक्षायं ज्ञानशब्दार्थः सोऽतिथिः परिकथ्यते ॥१४३८ नवपुण्यविधातव्या प्रतिपत्तिस्तपस्विनाम् । सर्वारम्भविमुक्तानां दात्रा सप्तगुणैषिणा ॥ ४३९ संग्रहमुच्चस्थानं पादोदकमर्चनं प्रमाणं च । वाक्कायमनः शुद्धिरेषणशुद्धिश्च विधिमाहुः ॥४४० ऐहिकफलानपेक्षा क्षान्तिनिष्कपट तानसूयत्वम् । अविषादत्वमुदित्वं निरहङ्कारत्वमिति सप्त दातृगुणाः ॥ ४४१ द्विधानदानमुद्दिष्टं पात्रापात्रादिभेदतः । तत्पात्रं त्रिविधं दानयोग्यं मुक्तिप्रदायकम् ४४२ मुनयोऽत्युत्तमं पात्रं मध्यमं हमणुव्रताः । जघन्यं दृष्टियुक्ताश्च पात्रं त्रिविधमीरितम् ॥४४३ सम्यक्त्ववजितोऽनेकतपः कर्मणि कर्मठः । यः स रम्यतरोऽपि स्यात्कुपात्रं गदितं जिनैः || ४४४ सम्यक्त्वरहितोऽशेषकषायकलुषीकृतः । यो विमुक्तव्रतोऽपात्रं स स्यान्मिथ्यात्वदूषितः ॥ ४४५ नाहरन्ति महासत्त्वाश्चित्तेनाप्यनुकम्पिताः । किन्तु ते दैन्यकारुण्यसङ्कल्पोज्झितवृत्तयः ॥ ४४६ अभक्तानां सवर्षाणां कारुण्योज्झितचेतसाम् । दीनानां च निवासेषु नाश्नन्ति मुनयः क्वचित् ॥४४७ पात्रवानेन संसारं तरन्ति त्वरितं नराः । वाधिं वधिष्णुकल्लोलं पोतेनेव नियामकाः ॥४४८ एवं शीलमहामातरः सप्तसुखदायिकाः । पुत्रेण नैगमेनाशु सेव्याः प्रत्यहमुत्तमाः ॥४४९ ॥४३७॥ व्यक्त हैं व्रत जिसके ऐसा जो साधु भिक्षाके लिए गृहस्थके घर स्वयमेव ही गमन करता है, वह अतिथि कहलाता है, ऐसा 'अतिथि' शब्दके अर्थके जानकार कहते हैं ||४३८ || सर्व आरम्भसे रहित तपस्वी साधुओंका सात गुणोंके धारक दाताको नौ प्रकारके पुण्योंसे अर्थात् नवधा भक्तिसे आदर-सत्कार करना चाहिये || ४३९ || गोचरीके लिए विहार करते हुए साधुको पडिगाहना, उच्चस्थान देना, चरण-प्रक्षालन करना, पूजन करना, नमस्कार करना, मन-वचन-काय शुद्ध रखना और शुद्ध भोजन देना, यह नवधा भक्ति है ||४४०|| इस लोकसम्बन्धी किसी भी प्रकारके फल पानेकी अपेक्षा नहीं रखना, क्षमा धारण करना, निष्कपट भाव रखना, ईर्ष्या न करना, विषाद नहीं करना, प्रमोद भाव रखना और अहंकार रहित होना, ये दाताके सात गुण कहे गये हैं || ४४१ ।। पात्र और अपात्र के भेदसे अन्नदान दो प्रकारका कहा गया है । इनमेंसे दान देनेके योग्य और मुक्ति देनेवाले पात्र तीन प्रकारके होते हैं ||४४२ ॥ उत्तमपात्र मुनि हैं, सम्यग्दर्शन और अणुव्रत के धारक श्रावक मध्यम पात्र हैं और केवल सम्यग्दर्शनसे युक्त व्रत-रहित मनुष्य जघन्य पात्र हैं, ये तीन प्रकारके पात्र कहे गये हैं ||४४३ || जो अनेक प्रकारके तप करनेमें कर्मठ है, किन्तु सम्यक्त्वसे रहित है, वह अतिरम्य होते हुए भी जिन भगवान् के द्वारा कुपात्र कहा गया है || ४४४ ॥ जो सम्यक्त्वसे रहित है, सभी कषायोंसे कलुषित चित्त है, व्रतोंसे रहित है और मिथ्यात्व से दूषित है, वह अपात्र है ।। ४५ ।। जो महाबलशाली है, षट्कायको रक्षाके भावसे जिनका चित्त अनुकम्पित है, जो दैन्य, कारुण्य और साहारके संकल्पसे रहित प्रवृत्तिवाले हैं, ऐसे महामुनि तो आहार करते नहीं हैं । किन्तु जो अल्प बलशाली मुनि हैं, वे भी भक्ति-रहित, दर्प सहित और करुणा-रहित चित्तवाले लोगों के यहाँ, तथा दीन पुरुषोंके घरोंमें भी कभी आहार ग्रहण नहीं करते हैं ||४४६-४४७॥ पात्रदानके द्वारा मनुष्य संसारको शीघ्र ही पार कर लेते हैं । जैसे कि नियामक कर्णधार बढ़ते हुए लहरोंवाले समुद्रको जहाजके द्वारा पार कर लेते हैं || ४४८ || इस प्रकार ये सात शीलरूप महामाताएँ महान् सुखोंको देनेवाली हैं, अतः नीतिवान् पुत्र जैसे अपनी माताकी सेवा करता है, उसी प्रकार उत्तम पुरुषोंको प्रतिदिन नियमसे इन सप्तशोलरूप माताओं की सेवा आराधना करनो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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