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________________ 'उमास्वामि-श्रावकाचार तत्र गत्वा जिनं नत्वा गुरूपान्ते विशुद्धधीः । बावदीत हषोकार्थविमुखः प्रोषषव्रतम् ॥४२५ विविक्तवसति धित्वा हित्वा सावद्यकर्म तत् । विमुक्तविषयस्तिष्ठेन्मनोवाक्कायगुमिमिः ॥४२६ अतिक्रम्य दिनं सर्वं कृत्वा सान्ध्यविधि पुनः । त्रियामां गमयेच्छुद्धसंस्तरे स्वस्थमानसः ॥४२७ प्रातरुत्थाय संशुद्ध कायस्तात्कालिकों क्रियाम् । रचयेच्च जिनेन्द्रार्चा जलगन्धादातादिभिः ॥४२८ उक्तेन विधिना नीत्वा द्वितीयं च दिनं निशाम् । तृतीयवासरस्या प्रयत्नादतिवाहयेत् ॥४२९ षोडश प्रहरानेवं गमयत्यागमेक्षणः । यः स हारायते भव्यश्वारुमुक्तिवधूरसि ॥४३० स्नानगन्धवपुर्भूषानस्यनारोनिषेवणम् । सर्वसावद्यकर्माणि प्रोषधस्थो विवर्जयेत् ॥४३१ यो निरारम्भमप्येकमुपवासमथाश्रयेत् । बहुकर्मक्षयं कृत्वा सोक्षयं सुखमश्नुते ॥४३२ स्वशक्त्या क्रियते यत्र संख्या भोगोपभोगयोः । भोगोपभोगसंख्याख्यं ज्ञेयं शिक्षावतं हि तत् ।।४३३ स्नानभोजननाम्बूलमूलो भोगो बुधैः स्मृतः । उपभोगस्तु वस्त्रस्त्रीभूषाशय्यासनादिकः ॥४३४ भोगोपभोगत्यागार्थ यमश्व नियमः स्मृतः । यमो निरवधिस्तत्र सावधिनियमः पुनः॥४३५ त्रिशुद्धया कुरुते योऽत्र संख्या भोगोपभोगयोः । तस्मिन् प्रयतते नूनं रिसंसुर्मुक्तिकामिनीम् ॥४३६ स्वस्य वित्तस्य यो भागः कल्पतेऽतिथिहेतवे । अतिथेः संविभागं तं जगदुर्जगदुत्तमाः ॥४३७ श्री जिनालयको जावे ॥४२४॥ वहाँ जाकर श्री जिनदेवको नमस्कार कर गुरुके समीप विशुद्ध बुद्धिवाला श्रावक इन्द्रियोंके विषयोंसे विमुख होकर प्रोषधव्रतको ग्रहण करे ।।४२५।। पुनः एकान्त स्थानका आश्रय लेकर, सावद्यकर्मको छोड़कर और सर्व विषयोंसे विमुक्त होकर मन-वचन-कायको वशमें रखते हुए ठहरे ॥४२६॥ इस प्रकार सम्पूर्ण दिन बिताकर पुनः सन्ध्याकालीन विधि करके शुद्ध संस्तरपर स्वस्थ मन होकर रात्रिके तीन पहर बितावे ।।४२७॥ पुनः प्रातःकाल उठकर तात्कालिक क्रियाओंको करके शरीर-शुद्धि कर जल गन्ध अक्षतादि द्रव्योंसे जिनेन्द्रदेवको पूजन करे ॥४२८॥ पुनः पूर्वोक्त विधिसे दूसरे दिनको और रात्रिको धर्मध्यानपूर्वक बिताकर तीसरे दिनके अर्घभागको भी प्रयत्नके साथ बितावे ॥४२९।। इस प्रकार आगम नेत्रवाला जो श्रावक सोलह पहर धर्मध्यानपूर्वक बिताता है, वह भव्य सुन्दर मुक्तिवधूके हृदयका हार बनता है ॥४३०॥ प्रोषधोपवासमें स्थित श्रावक स्नान, गन्व-विलेपन, शरीर-शृङ्गार, स्त्री सेवन और सर्व सावद्य कर्मोंका परित्याग करे ॥४३१।। जो मनुष्य सर्व आरम्भसे रहित होकर एक भी उपवासका आश्रय करता है, वह बहुत कर्मोका क्षय करके अक्षय सुखको प्राप्त होता है ॥४३२॥ स्वीकृत परिग्रहपरिमाणव्रतमें भी अपनो शक्तिके अनुसार भोग और उपभोगको जो संख्या और भी सीमित को जाती है, वह भोगोपभोगसंख्यान नामका तीसरा शिक्षाव्रत जानना चाहिये ।।४३३।। स्नान, भोजन और ताम्बूल-भक्षणको ज्ञानियोंने भोग कहा है। वस्त्र, स्त्री, आभूषण, शय्या और आसनादिको उपभोग कहा है ।।४३४॥ भोग और उपभोगके त्यागके लिए यम और नियम कहे गये हैं। कालकी मर्यादासे रहित यावज्जीवनके त्यागको यम कहते हैं और कालको मर्यादाके साथ त्याग करनेको नियम कहते हैं ||४३५।। जो पुरुष इस शिक्षाव्रतमें भोग और उपभोगके पदार्थोकी संख्याको त्रियोग शुद्धिसे करता है, और उसे पालन करनेका प्रयत्न करता है, वह नियमसे मुक्ति कामिनीका रमण करनेवाला होता है ।।४३६।। जो पुरुष अपने धनका भाग अतिथिके लिए संकल्प करता है, उसे जगत्में उत्तम जिनेन्द्रदेवने अतिथि संविभाग व्रत कहा है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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