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________________ १८६ श्रावकाचार-संग्रह लाक्षामनःशिलानीलीशण लाङ्गलघातकीः । हरीतालं विषं चापि विक्रीणीत न शुद्धधीः ॥४१२ वापीकूपतडागादिशोषणं भूमिकर्षणम् । नित्यं वनस्पतेर्बार्धा धर्मार्थी नैव पोषयेत् ॥४१३ टनं नासिकावेघो मुष्कच्छेदोऽङ्घ्रिभञ्जनम् । कर्णापनयनं नाम निर्लाञ्छनमुदीरितम् ॥४१४ अङ्कनं मङ्कनं लङ्क घर्षणं रोधनं तथा । बन्धनं छेदनं चान्ये हेयाः स्युस्तत्र सर्वदा ॥४१५ रागद्वेषपरित्यागाद्धानात्सावद्यकर्मणाम् । समता या तदाम्नातं बुधैः सामायिकं व्रतम् ||४१६ सामायिकविध क्षेत्रं कालश्च विऩयासने । कायवाङ्मनसां शुद्धिः सप्तैतानि विदुर्बुधाः ॥४१७ एकान्ते वा वने शून्ये गृहे चैत्यालयेऽथवा । सामायिकं व्रतं शुद्धं चेतव्यं वीतमत्सरः ॥४१८ लोकसङ्घट्टनिर्मुक्ते कोलाहलविर्वाजते । वीतदंशे विधातव्यं स्थाने सामायिकं व्रतम् ॥४१९ सत्पर्यङ्कासनासीनो रागाद्य कलुषीकृतः । विनयाढ्यो निबध्नीयान्मति सामायिकव्रते ||४२० पूर्वाह्णे किल मध्याह्नेऽपराह्णे विमलाशयाः । सामायिकस्य समयं सिद्धान्तज्ञा अथोचिरे ||४२१ सामायिके स्थिरा यस्य बुद्धिः स भरतेशवत् । केवलज्ञानसम्प्राप्ति द्रुतं स लभते नरः ||४२२ चतुष्पव्यां चतुर्भेदाहारत्यागैकलक्षणम् । वदन्ति विदिताम्नायाः प्रोषधव्रतमुत्तमम् ॥४२३ कृत्योपवासघत्रस्य पूर्वस्मिन् दिवसे सुधीः । मध्याह्न भोजनं शुद्धं यायाच्छ्रीमज्जिनालयम् ||४२४ आदि शस्त्र, अग्नि, मूसल, ओखली आदिको दूसरोंके लिए नहीं देवे । तथा तिल, सरसों आदि जीवोत्पत्तिवाले धान्यका भी संग्रह समर्थ लोगोंको नहीं करना चाहिए || ४११ | इसी प्रकार निर्मल बुद्धिवाले श्रावक लाख, मैनसिल, नील, सन, हल, धावड़ाके फूल, हरताल और विषको भी नहीं बेंचें ||४१२ || बावड़ी, कुँआ, तालाब आदि जलाशयोंका सुखाना, भूमिको जोतना और नित्य ही वनस्पतिका काटना- कटाना आदि कायं भी धर्मार्थी पुरुषको नहीं करना चाहिये || ४१३॥ टाँकना, शरीरको अग्निसे दागना, नाक छेदना, मुष्कें बाँधना, हाथोंको छेदना, चरणोंका भंजन करना, कान काटना, बैल आदिको नपुंसक करना, खाल और छाल आदि उदेरना, शरीरको गर्म लोहे आदि अंकित करना, व्यर्थ गमन करना कराना, दाग देना, जलाना, पशु आदिको घसीटना, उन्हें रोकना, बाँधना और छेदना आदि सभी जीव- पीड़ाकारण कार्य श्रावकोंके लिए हेय है, अतः ऐसे अनर्थदण्डोंको नहीं करना चाहिये ||४१४ - ४१५ ॥ रागद्वेषके परित्याग करनेसे और सावद्य (पाप) कार्योंकी हानि (अभाव) से जो समताभाव उत्पन्न होता है, ज्ञानियोंने उसे सामायिकव्रत कहा है ||४१६|| सामायिकको विधिमें ज्ञानियोंने सात प्रकारको शुद्धियां कही हैं— क्षेत्रशुद्धि, शुद्धि, विनयशुद्धि, आसनशुद्धि, कायशुद्धि, वचनशुद्धि और मनशुद्धि ||४१७|| एकान्त स्थानमें, वनमें, सूने घरमें, अथवा चैत्यालय में मत्सरभावसे रहित होकर शुद्धसामायिकव्रतका अभ्यास करे ||४१८|| जो स्थान लोगोंके संघट्टसे रहित हो, कोलाहलसे रहित हो और जहाँपर डाँस-मच्छर न हों, ऐसे स्थानपर सामायिक करना चाहिये || ४१९ || सामायिक करते समय उत्तम पर्यङ्क आसन से बैठे, रागादिकी कलुषतासे रहित निर्मल चित्त हो और विनयसे संयुक्त होकर सामायिक व्रतमें बुद्धिको निबद्ध करे ||४२०|| निर्मल चित्तवाले सिद्धान्तके ज्ञाता लोग प्रातः काल, मध्याह्नकाल और सायंकालको सामायिकका समय कहते हैं ||४२१|| सामायिक करनेमें जिसकी बुद्धि स्थिर रहती है, वह मनुष्य भरतराजके समान शीघ्र ही केवलज्ञानकी प्राप्तिको पाता है ||४२२|| प्रत्येक मासको चारों पवियोंमें चारों प्रकारके आहारके सर्वथा त्याग करनेको आम्नायके ज्ञाता लोग उत्तम प्रोषव्रत कहते हैं ॥४२३॥ उपवास करनेके पूर्व दिन ज्ञानी पुरुष मध्याह्नकालमें शुद्ध भोजन करके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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