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________________ उमास्वामि श्रावकाचार इत्येवं बोधितो भव्यः कियत्कालं दृषत्समः । भवतीह मृदुस्थूलो घर्मंभाक् सुखसङ्गतः ॥४७५ इति हतदुरितोघं श्रावकाचारसारं गदितमतिसुबोधोपास्त्यकं स्वामिभिश्च । विनयभरनताङ्गाः सम्यगाकर्णयन्तु विशदमतिमवाप्य ज्ञानयुक्ता भवन्तु ॥ ४७६ इतिवृत्तं मयोद्दिष्टं संश्रये षष्ठकेऽखिलम् । चान्यन्मया कृते ग्रन्थेऽन्यस्मिन् द्रष्टव्यमेव च ॥ ४७७ मूर्ख है, तथा शास्त्र श्रवणसे भी अज्ञ है, वह मनुष्य पाप कैसे नहीं करेगा ? अवश्य ही करेगा || ४७४ || इस प्रकार से सम्बोधित पाषाण- समान भी भव्य पुरुष कितने ही कालमें कोमल ओर उदार हो जाता है । पुनः वह भी धर्म धारण करके सुखको प्राप्त होता है || ४७५ || इस प्रकार पाप-समूहका नाशक सर्व श्रावकाचारोंका सार अतिसुगम उपासकाचार स्वामीने कहा है । इसे विनय भारसे नम्रीभूत अंगवाले भव्यजन भली-भाँतिसे श्रवण करें और निर्मल बुद्धिको प्राप्तकर ज्ञानयुक्त होवें ॥ ४७६ || इस प्रकार यह सर्व वर्णन मैंने श्रावकके छठे आवश्यक कार्यके संश्रयमें किया। इस सम्बन्ध में अन्य जो बातें ज्ञातव्य हैं, वह मेरे द्वारा रचित अन्य ग्रन्थमें देखना चाहिए ॥ ४७७ || Jain Education International इति उमास्वामिविरचित श्रावकाचार समाप्त । For Private & Personal Use Only १९१ www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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