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________________ उमास्वामि-आवकाचार अन्तर्मुहूर्ततो यत्र विचित्रा सत्वसन्ततिः । सम्पद्यते न तद्भक्ष्यं नवनीतं विचाः ॥ २९७ नवनीतं मधुसमं जिनैः प्रोक्तं स्वभक्ष्यकम् । यः खादति न तस्यास्ति संयमस्य लवोऽपि हि २९८ जन्तोरेकतरस्यापि रक्षणे यो विचक्षणः । नवनीतं स सेवेत कथं प्राणिगणाकुलम् ॥ २९९ न्यग्रोधपिप्पलपलक्षकाकोदुम्बरभूरुहाम् । फलान्युदुम्बरस्यापि भक्षयेन विचक्षणः ॥३०० स्थावराश्च त्रसा यत्र परे लक्षाः शरीरिणः । तस्य चोदुम्बरोद्भूतं खावने न फलं क्वचित् ॥ ३०१ क्षीरवृक्षफलान्यत्ति चित्रजीवकुलानि यः । संसारे पातकं तस्य पातकं जायते बहु ॥३०२ तैलं सलिलमाज्यं वा चर्मपात्रापवित्रितम् । प्राणान्तेऽपि न गृह्णीयान्नरः सद्-व्रतभूषितः ॥३०३ देशकालवशात्तस्थमाद्रियन्तेऽत्र ये जनाः । जिनोदितमकुर्वन्तो निन्द्यास्तेऽपि पदे पदे ॥३०४ अज्ञातफलमश्नातास्तथाऽशोधितशाककाः । विद्धपूगीफलास्वादा हहचूर्णस्य भक्षकाः ॥ ३०५ अपरीक्षित मालिन्यसर्पः पयआशानकाः । म्लेच्छान्नभाकाः शूद्रनिन्द्यमानुष्यसागाः ॥ ३०६ तेऽपि मांसाशिनो ज्ञेया न ज्ञेयाः श्रावकोत्तमाः । अज्ञातभाजनाशानाः कुतक्रग्रहणाशनाः ॥३०७ जलार्द्रपात्रविन्यस्तभक्ष्याः पुष्पादिभक्षकाः । विनद्वयगतक्राशा बध्यारनाललम्पटाः ॥ ३०८ समान नेत्रवाला देव हुआ । पुनः वहाँसे आकर राजीवलोचन नामका राजा हुआ || २९६ || ऐसा जानकर महापापका कारण मधु-भक्षण नहीं करना चाहिए। अब नवनीत (लोणी, मक्खन) के दोष वर्णन करते हैं - जिसमें अन्तर्मुहूर्तसे ही अनेक प्रकारके सम्मूर्च्छन जीवोंकी सन्तान उत्पन्न होने लगती है, ऐसा नवनीत ज्ञानी जनोंको नहीं खाना चाहिए || २९७|| जिनेन्द्रदेवने नवनीतको मधुके ही समान अभक्ष्य कहा है। जो इसे खाता है उसके संयमका लेश भी नहीं है || २९८ || जो एक प्राणीकी भी रक्षा करनेमें सावधान है, वह चतुर पुरुष अनेक प्राणियोंके समूह से व्याप्त नवनीतको कैसे सेवन करेगा ? अर्थात् सेवा नहीं करेगा || २९९ || इसी प्रकार बुद्धिमानोंको बड़, पोपल, पीलु, गूलर और कुंबर वृक्षोंके फलोंको नहीं खाना चाहिए ||३००|| जिन उदुम्बर फलोंमें असंख्य स्थावर और लाखों त्रस जोव रहते हैं, उनके खाने में कुछ भी फल नहीं है, प्रत्युत महान् पाप ही है || ३०१ || जो मनुष्य नाना जीवोंसे भरे हुए इन क्षीरी वृक्षोंके फलोंको खाता है, उसको संसारमें पतन करानेवाला भारी पातक (पाप) प्राप्त होता है ||३०२|| सद्-व्रतसे भूषित मनुष्य को चाहिए कि वह चर्म- पात्र में रखने से अपवित्र हुए तेल, जल अथवा घीको प्राणान्त होनेपर भी ग्रहण न करें ||३०३ || जो मनुष्य देश - कालके वशसे चमड़े में रखे हुए तेल, जलादिको उपयोगमें लाते हैं, वे जिनदेव के कहे तत्त्वका श्रद्धान न करनेसे पद-पदपर निन्द्य समझे जाते हैं ||३०४|| जो लोग अज्ञात फलोंको खाते हैं, तथा जो अशोधित शाकाहारी हैं, बोधी धुनी सुपारीका स्वाद लेते हैं, हाट-बाजार के बने चूर्णके भक्षक हैं, विना परीक्षा किये मलिन घी-दूधको खाते हैं, म्लेच्छ पुरुषोंके यहाँ बने भोजनके भक्षी हैं एवं शूद्र तथा निन्द्य मनुष्योंके घर जाकर भोजन करते हैं, उन लोगों को भी मांसभक्षी जानना चाहिये, उन्हें कदाचित् भी उत्तम श्रावक नहीं समझना चाहिए ।।३०५-३०६३॥ १७७ जो अज्ञात पुरुषोंके भाजनोंमें भोजन करते हैं, खोटे दुर्गन्धित छांछको ग्रहण कर खाते हैं, जलसे गीले पात्रमें रखी वस्तुओंको खाते हैं, पुष्प आदिके भक्षक हैं, दो दिन वासी छांछ और २३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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