SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 211
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रावकाचार - संग्रह प्रातःक्षणागलितयुक्नीरपानपराः सदा । तेऽपि मद्याशिनो ज्ञेया न ज्ञेयाः श्रावकोत्तमाः ॥३०९ विद्वान्नचलितस्वादपुष्पितान्नप्रहेयकाः । श्रावकाः सम्भवन्तीह मूलाष्टगुणसंयुताः ॥ ३१० आमगोरससंप्रक्तं द्विदलं द्रोणपुष्पिका । सन्धानकं कलिंगं च नाद्यते शुद्धदृष्टिभिः ॥ ३११ आस्थानकं च वृन्ताकं कूष्माण्डं च करीरकम् । रम्भाफलं च करकं नाद्यते शुद्धदृष्टिभिः ॥ ३१२ शिम्बयो मूलकं विल्वफलानि कुसुमानि च । नालीसूरणकन्दश्च त्यक्तव्यं शृङ्गबेरकम् ||३१३ शतावरी कुमारी च गुडूची गिरिकणिका । स्नुही त्वमृतवल्ली च त्यक्तव्या कोमलाम्लिका ॥ ३१४ कोशातकी च कर्कोटो बन्ध्या कर्कोटिका तथा । महाफला य जम्बूश्च तिन्दुकं त्वामवाटकम् ॥३१५ प्रन्नाटं त्वेडवलं त्याज्यमित्यादिदोषयुक् । सर्वे किसलयाः सूक्ष्मजन्तु सन्तानसङ्कुलाः ॥३१६ आर्द्रकन्दाश्च नाद्यन्ते भवभ्रमण भीरुभिः । सौवर्चली लूणिकादिनाल्यादि कुसुमानि च ॥३१७ १७८ मां सरक्तार्द्रचर्मास्थिसुरादर्शनतस्त्यजेत् । मृताङ्गिवीक्षणादन्नं प्रत्याख्यातान्नसेवनात् ॥३१८ सप्तान्तरायाः सन्तीह पालनीयाश्च श्रावकैः । अन्येषां दुर्वहत्वाच्च सप्तैव नाधिका मताः ॥३१९ प्रसर्पति तमः पूरे पतन्तः प्राणिनो भृशम् । यत्रान्ने नावलोक्यन्ते तत्र रात्रौ न भुज्यते ॥ ३२० दहीको खाते हैं, कमलनाल, कांजी बड़े आदि खाने में लम्पट हैं और प्रातः काल नहीं छाने हुए जलको पीते हैं, वे सब मनुष्य मद्यके खानेवाले जानना चाहिये, उन्हें कभी उत्तम श्रावक नहीं समझना चाहिये || ३०६३ - ३०९ || जो पुरुष घुने अन्नके, स्वाद-चलित भोजनके और पुष्पित (अंकुरित ) हुए अन्नके त्यागी हैं, वे ही पुरुष यहाँपर अष्टमूलगुणो से संयुक्त श्रावक हैं, ऐसा जानना चाहिये || ३१०|| शुद्ध सम्यग्दृष्टि जीव कच्चे गोरस ( दूध दही छाँछ) से मिश्रित द्विदल अन्नको, द्रोण पुष्पोंको और गुलकन्द आदि मुरब्बों को नहीं खाते हैं ||३११|| सर्व प्रकारके तेल आदिमें पड़े अथानों (अचारों) को, बैंगन, काशीफल, कैर, केला और ओला आदिको भी शुद्धसम्यग्दृष्टि जीव नहीं खाते हैं ||३१२|| सेम (बालोर), मूली, विल्वफल (वेल), पुष्प, नाली, सूरण, जमीकन्द और अदरकका भी त्याग करना चाहिये || ३१३ || सतावर, गँवारपाठा, गुड़वेल, गिरिकणिका ( अपराजिता लता), स्तुही ( थूहर ), अमृतवेल, कोमल इमली, इनका भी त्याग करना चाहिये || ३१४ || कोशातकी (तोरई, गिलकी), कर्कोटी (ककोड़ी), वन्ध्या कर्कोटी ( एक औषधि वनकरेला ), महाफला ( खिरनी), जामुन, तेन्दुक, आमवाटक ( कच्चे अन्न - ह मक्की के भुट्टे आदि), प्रपुन्नाट ( कफ नाशक शाकविशेष), एरण्डपत्र इत्यादि दोषयुक्त वस्तुओंका त्याग करना चाहिये । तथा सूक्ष्म जन्तुओंकी सन्तानसे भरे हुए सभी पत्रशाक, किसलय (कोमल पत्ते ) और गीले जमीकन्द, सूवापालक, लूणी, नाली और पुष्प आदि भी भवभ्रमणसे डरनेवाले पुरुष नहीं खाते हैं ।।३१५-३१७॥ श्रावकको भोजनके समय ये सात अन्तराय भी पालन करना चाहियेमांस, रक्त, गीला चर्म, हड्डी और मदिरा देखनेसे भोजनको छोड़ देवे, तथा भोजन में किसी मरे हुए जन्तुको देखकर और त्यागे हुए अन्नका सेवन हो जानेपर भोजनको छोड़ देवे । इनके अतिरिक्त और भी भोजन के अन्तराय हैं, किन्तु उनका पालन करना अति कठिन है, (वे मुनिजनोंके द्वारा ही पालन हो सकते हैं ।) अतः श्रावकके उक्त सात ही अन्तराय माने गये हैं, अधिक नहीं ॥३१८-३१९ || जिस रात्रिमें अन्धकारके पूरके प्रसार होनेपर अन्नमें प्रचुरतासे गिरते हुए प्राणी नहीं दिखाई देते हैं, इसलिये रात्रि में भोजन नहीं करना चाहिये || ३२० || रात्रि में अन्धकारके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy