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श्रावकाचार संग्रह
पञ्चगव्यं तु तैरिष्टं गोमांसे शपथः कृतः । तत्पित्तजाऽप्युपादेया प्रतिष्ठाविषु रोचना ॥२८४ शरीरावयवत्वेन मांसे दोषो न सर्पिषु । धेनुदेहस्रुतं मूत्रं न पुनः पयसा समम् ॥ २८५ यथा वा तीर्थभूतेषु मुखतो निन्द्यते हि गौः । पृष्ठतो वन्द्यते सैव कियदित्थं प्रकाश्यताम् ॥२८६ तच्छाक्य सांख्यचार्वाकवेदवैद्यकर्पादिनाम् । मतं विहाय हातव्यं मांसं श्रेयोऽथभिः सदा ॥ २८७ मांसास्वादपराश्चैते तं पुष्यन्ति दिने दिने । अध्यन्यान्युपदिश्यन्ते जिह्वावशगता खलाः ॥२८८ अवन्तिविषये चण्डो मातङ्गो मांसवर्जनात् । यक्षाधिदेवसाम्राज्यं प्रपेदे करुणाङ्कितः ॥ २८९ anise भोमदासोऽथ सिंहसौदासनामभाक् । मांसभक्षणदोषेण गता नरकपद्धतिम् ॥२९० अनेकजन्तुसङ्कीर्णं प्राणिघात समुद्भवम् । लालावन्माक्षिकं दक्षः कः स्वादयितुमिच्छति ॥ २९१ मधुबिन्दुकलास्वादाद् ये सत्त्वाः प्रविदारिताः । पल्लोदाहेऽपि तावन्तो भवन्ति न भवन्ति हि २९२ ग्रामद्वावशदाहोत्थं पापं भवति मानवः । मधुभक्षणसञ्जातदोषात्पूर्वमुनोरितम् ॥२९३ जग्धं मध्वोषधेनापि नरकाय न संशयः । गुडेन मिश्रितं मृत्युहेतवे भक्षितं विषम् ॥२९४ लोलाख्योऽत्र द्विजवरोऽप्यभूत्पुष्पाख्यपत्तने । मधुभक्षणदोषेण जातो दुर्गतिभाजनम् ॥ २९५ राजीवलोचनो धीमान् जातो राजीवलोचनः । मधूनां त्यागजातेन जातो राजीवलोचनः ||२९६ पत्त तो आयुष्य प्रदान करते हैं और उसका (जड़) भाग मृत्युका कारण होता है ॥२८३ || और भी देखो - अन्य वादियोंने गायसे उत्पन्न होनेवाले दूध, दही, घी, गोबर और मूत्र इन पंचगव्यों को तो इष्ट ग्राह्य कहा है, किन्तु गोमांस भक्षण में शपथ की है । तथा गायके पित्त आदिसे उत्पन्न गोरोचनको प्रतिष्ठादि कार्यों में उपादेय कहा है || २८४ | | शरीरके अवयवपना होते हुए भी मांसभक्षण में दोष कहा है, घृत- भक्षण में नहीं । गायके देहसे निकला हुआ भी मूत्र उसीके दूधके समान नहीं माना जाता है || २८५ ॥ अथवा जैसे गायों के शरीर तीर्थस्वरूप होनेपर भी गौ मुखकी ओर से निन्द्य और पीठकी ओरसे वन्द्य मानी गई है । इस विषय में इस प्रकार और कितना प्रकाश डाला जाय ? ॥ २८६ ॥ इसलिए शाक्य (बौद्ध), सांख्य, चार्वाक (नास्तिक), वैदिक, वैद्य और कापालिक लोगोंके मतको छोड़कर कल्याणार्थी जनोंको सदा मांसका त्याग ही करना चाहिए || २८७|| मांसके आस्वादनमें तत्पर ये वाममार्गी लोग दिन-दिन मांस भक्षणका ही पोषण करते हैं और जिह्वा वशंगत ये दुष्टजन औरोंको भी मांस भक्षणका ही उपदेश देते हैं ||२८८ ।। देखो - अवन्तीदेशमें चण्ड नामका चाण्डाल करुणासे युक्त होकर मांस-त्याग से यक्षाधिपति के साम्राज्यको प्राप्त हुआ || २८९ ॥ बकराजा, भीमदास और सिंहसौदास नामका राजा, ये सब मांस भक्षण के दोषसे नरकके मार्गको प्राप्त हुए । अतएव मांस भक्षण सर्वथा त्याज्य है ॥ २९०॥
अब मधुके दोष वर्णन करते हैं— अनेक जन्तुओंसे व्याप्त और प्राणियों के घातसे उत्पन्न हुए लारके समान निन्द्य मधुको कौन चतुर पुरुष आस्वादन करनेकी इच्छा करेगा ? कोई भो नहीं ||२९१ ॥ मधु-बिन्दुके लेश-मात्रके आस्वादन करनेसे जितने प्राणो मारे जाते हैं, उतने प्राणियोंका घात पल्ली (ग्वालों की टोली) के जलानेपर भी नहीं होता है || २९२|| मधु-भक्षणके दोषसे उत्पन्न पाप बारह गाँवोंके जलाने के पापके समान मनुष्यको प्राप्त होता है ऐसा पूर्व मुनियोंने कहा है || २१३ || औषधिके साथ खाया गया मधु भी नरक ले जानेके लिए कारण होता है । जैसे कि गुडके साथ मिलाकर खाया गया विष मृत्युका कारण होता है || २९४ || देखो - पुष्पपत्तन नामके नगरमें लोलनामक श्रेष्ठ ब्राह्मण भी मधु-भक्षणके दोषसे दुर्गतिका भाजन हुआ ।। २९५ ।। और मधुके त्यागसे उत्पन्न पुण्यके प्रभावसे राजीवलोचन नामक बुद्धिमान् व्यक्ति मरकर कमल के
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