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उमास्वामि-श्रावकाचार अन्नपानादिकं कर्म मद्यमांसाशिसासु । प्राणान्तेऽपि न कुर्वोरन् परलोकाभिलाषुकाः ॥२७३ भोजनादिषु ये कुर्युरपाङ्क्तयैः समं जनः । संसर्ग तेऽत्र निन्द्यन्ते परलोकेऽपि दुःखिताः ॥२७४ कुत्सितागमसम्भ्रान्ताः कुतकहतचेतसः । वदन्ति वादिनः केचिन्नाभक्ष्यमिह किञ्चन ॥२७५ जीवयोगाविशेषो न मृगमेषादिकायवत् । मुद्गमाषादिकायोऽपि मांसमित्यपरे जगुः ॥२७६ तदयुक्तं न वाच्यं च युक्तं जैनागमे यथा । स्थावरा जङ्गमाश्चैव द्विधा जीवाः प्रकीर्तिताः ॥२७७ जङ्गमेषु भवेन्मांसं फलं च स्थावरेषु च । फलं खाद्यं भवेद् भक्ष्यं त्याज्यं मांसमभक्ष्यकम् ।।२७८ मांसं जीवशरीरं जीवशरीरं भवेन्न वा मांसम् । यद्व निम्बो वृक्षो वृक्षस्तु भवेन्न वा निम्बः ॥२७९
यद्वद गरुडः पक्षी पक्षी न तु सर्व एव गरुडोऽस्ति।
रामैव चास्ति माता माता न तु साविका रामा ॥२८० प्रायश्चित्तादिशास्त्रेषु विशेषा गणनातिगाः । भक्ष्याभक्ष्यादिषु प्रोक्ता कृत्याकृत्ये विमुश्च तान् २८१ शुद्धं दुग्धं न गोमांसं वस्तुवैचित्र्यमीदृशम् । विषघ्नं रत्नमाहेयं विषं च विपदे यतः ॥२८२ हेयं पलं पयः पेयं समे सत्यपि कारणे । विषद्रोरायुषे पत्रं मूलं तु मृतये मतम् ॥२८३ भी भोजन-पानादिक कार्य नहीं करना चाहिये ॥२७३।। जो मनुष्य अपांक्तेय (अपनी पंक्तिमें बिठाकर भोजन करानेके लिये अयोग्य) लोगोंके साथ भोजनादिमें संसर्ग करते हैं, वे मनुष्य इस लोकमें निन्दाको प्राप्त होते हैं और परलोकमें भी दुःख पाते हैं ॥२७४॥ खोटे आगमोंके अभ्याससे जिनकी बुद्धि भ्रममें पड़ रही है और कुतर्कसे जिनका चित्त विक्षिप्त हो रहा है, ऐसे कितने ही अज्ञानी वादी लोग कहते हैं कि इस लोकमें कोई भी वस्तु अभक्ष्य नहीं है ।।२७५॥ कितने ही कुतर्की कहते हैं कि हरिण, मेढा आदिके कायके समान मूंग-उड़द आदिका काय भी मांस है, क्योंकि उसमें भी जीव-संयोगकी समानतामें कोई अन्तर नहीं है। अर्थात् जैसे हरिण आदिके शरीरमें जीवका संयोग पाया जाता है, उसी प्रकार उड़द-मूग आदि वनस्पतिकायमें भी जीवका संयोग पाया जाता है । अतः हरिण आदिके शरीरके समान उड़द-मूग आदि भी मांसरूप ही हैं ॥२७६|| आचार्य कहते हैं कि उन्हें ऐसा अयोग्य वचन नहीं बोलना चाहिए। क्योंकि जैन-आगममें जीव दो प्रकारके कहे गये हैं-स्थावर जीव और जंगम (प्रस) जीव ॥२७७।। जंगम जीवोंमें मांस उत्पन्न होता है और स्थावर जीवोंमें फल उत्पन्न होते हैं। इनमेंसे फल तो खाने योग्य है, भक्ष्य हैं, किन्तु मांस अभक्ष्य है, खानेके योग्य नहीं है ॥२७८॥ जो मांस है, वह तो नियमसे जीवका शरीर होता है, किन्तु जो जीव शरीर है, वह मांस होता भी है और नहीं भी होता है। देखो जो नीम है, वह तो नियमसे वृक्ष है, किन्तु जो वृक्ष है, वह नीम हो भी, और न भी हो ॥२७९।। अथवा जैसे गरुड़ तो नियमसे पक्षी है, किन्तु सभी पक्षी गरुड़ नहीं होते । और माता तो स्त्री है, किन्तु सभी स्त्रियाँ माता नहीं होती हैं ।।२८०॥ प्रायश्चित्त आदि शास्त्रोंके भीतर भक्ष्य और अभक्ष्य आदि पदार्थोंमें गणनातीत भेद कहे गये हैं, इसलिए कर्तव्य और अकर्तव्यका निर्णय करके उनमेंसे अभक्ष्य पदार्थोको छोड़ देना चाहिए ॥२८१।। और भी देखो-दूध और मांस दोनों ही गायसे निकलते हैं, उनमेंसे दूध तो शुद्ध है और गोमांस शुद्ध नहीं है, इस प्रकारको यह वस्तु विचित्रता है। मणिधर सर्पका रत्न तो विष-घातक होता है और उसका विष विपत्तिके लिये होता है, अर्थात् मारक होता है ।।२८२॥ दूध और मांस इन दोनोंके कारण समान होनेपर भी, अर्थात् एक शरीरसे उत्पन्न होनेपर भी मांस हेय है और दूध पेय है। देखो-विषवृक्षके
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