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उमास्थामि श्रावकाचार
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गुरूपास्तिमथोऽप्युक्त्वा वक्ष्ये स्वाध्यायसंयमौ । तपो दानं च भव्यानां सुखसिद्धपथंमीप्सितम् ॥१९७ स्वाध्यायः पञ्चषा प्रोक्तो लोकानां ज्ञानदायकः । वाचना पृच्छनाऽऽम्नायोऽनुप्रेक्षा धर्मदेशना ॥ १९८ इति वाक्यार्थ सन्दर्भ होना वाच्या न वाचना । सन्देहहानये व्यक्ता गुरुपार्श्वे हि पृच्छना ॥१९९ आम्नायः शुद्धसंघोषोऽनुप्रेक्षाऽप्यनुचिन्तनम् । धर्मोपदेश इत्येवं स्वाध्यायः पञ्चधा भवेत् ॥ २०० संयम द्विविधो ज्ञेय आद्यश्वेन्द्रियसंयमः । इन्द्रियार्थनिवृत्त्युत्यो द्वितीयः प्राणिसंयमः ॥२०१ प्रथमं संयमं सेवमानः स्यात्सकलप्रियः । पुमानिन्द्र नरेन्द्रादिपदभोक्ता भवातिगः ॥२०२ वने करी मदोन्मत्तः करिणीस्पर्शलोलुपः । बन्धनं ताडनं प्राप्तः पारवश्यमुपागतः ॥२०३ अगाधजलसम्पूर्णनदीनदसरस्सु च । गले संविद्धयते मत्स्यो रसनेन्द्रियवचितः ॥२०४ घ्राणेन्द्रियसमासक्तो मधुलिट् पङ्कजस्थितः । तत्रैव म्रियते मूढोऽस्तंगते च दिवाकरे । २०५ नयनेन्द्रियसंसक्तः शलभो दीपतेजसा । अतीवमूढतापन्नः पतित्वा म्रियतेऽत्र च ॥ २०६ श्रवणेन्द्रिययोगेन गेयासक्तः कुरङ्गकः । व्याधेन बाणसंविद्धो म्रियते क्षणमात्रतः ॥२०७ एकैकेन्द्रियसंसक्ता जीवा दुःखमुपागताः । पञ्चेन्द्रियवशाः के न दुःखिनः स्युर्भवे भवे ॥२०८ मनोऽभिधान भूपालप्रेरितेन्द्रियभृत्यकाः । स्वस्वकार्येषु वर्तन्ते विचारपरिवजिताः ॥ २०९
को नाना प्रकारकी विद्याएँ सिद्ध होती हैं || १९६ || इस प्रकार गुरूपास्तिको कहकर अब मैं भव्यजनोंके अभीष्ट सुखकी सिद्धिके लिये स्वाध्याय, संयम, तप और दानका वर्णन करूंगा ॥ १९७ ॥ लोगोंको ज्ञानका देनेवाला स्वाध्याय पाँच प्रकारका कहा गया है-वाचना, पृच्छना, आम्नाय, अनुप्रेक्षा और धर्मोपदेश || १९८ || (आगमके शब्द और अर्थंका दूसरोंको निर्दोष प्रतिपादन करना वाचना स्वाध्याय है ।) अतः वाक्यके अर्थ सन्दर्भसे हीन वाचना कभी नहीं करनी चाहिए। अपने सन्देहको दूर करने के लिए गुरुके पास में प्रश्न पूछकर स्पष्ट अर्थ-बोध करना पृच्छना स्वाध्याय है || १९९|| ग्रन्थका शुद्ध उच्चारण करना आम्नाय स्वाध्याय है । ज्ञात तत्त्वके स्वरूपका बारबार चिन्तन करना अनुप्रेक्षा स्वाध्याय है । भव्योंके लिए धर्मका उपदेश करना धर्मोपदेश नामका स्वाध्याय है । इस प्रकार स्वाध्याय पाँच प्रकारका होता है ॥ २००॥ संयम दो प्रकारका जानना चाहिए - पहला इन्द्रियसंयम और दूसरा प्राणिसंयम । पाँचों इन्द्रियोंके विषयोंकी निवृत्ति करना इन्द्रियसंयम है और छह कायके जीवोंकी रक्षा करना प्राणिसंयम है || २०१ || पहले इन्द्रियसंयमको सेवन करनेवाला मनुष्य सबका प्यारा होता है । वह पुरुष इन्द्र नरेद्र आदि पदोंको भोगकर संसारके पार पहुँचता है || २०२|| देखो - वनमें मदोन्मत्त हस्ती हस्तिनीके स्पर्शका लोलुपी होकर परवश होता हुआ बन्धन और ताडनको प्राप्त होता है || २०३ || अगाधजलसे भरे हुए नदी, नद और सरोवरों में रहनेवाला मत्स्य रसनेन्द्रियके वशंगत होकर गलेमें वंशीके द्वारा बेधा जाता है ||२०४ | | कमलमें बैठा मूढ भ्रमर घ्राणेन्द्रियके विषय में आसक्त होकर सूर्यके अस्त हो जानेपर वहीं मरणको प्राप्त होता है || २०५ || नेत्रेन्द्रियके विषय में आसक्त शलभ दीपकके तेजसे अतीव मूढताको प्राप्त होकर उसीमें गिरकर इस लोकमें मरणको प्राप्त होता है || २०६ ॥ कर्णेन्द्रियके विषयसे गीत सुननेमें आसक्त हरिण व्याधके बाणसे बेधित होकर क्षणमात्रमें मारा जाता है || २०७|| जब एक-एक इन्द्रियके विषयमें आसक्त ये जीव मरणके दुःखको प्राप्त होते हैं तब जो पाँचों इन्द्रियोंके विषयोंके वश हो रहे हैं, वे भव-भव में क्यों न दुखी होंगे ? अवश्य ही दुखी होंगे ||२०८|| मन नामके राजाके आदेशसे प्रेरित ये इन्द्रियरूपी भृत्य ( नौकर ) विचार - रहित होकर अपने-अपने कार्योंमें संलग्न रहते हैं || २०९ || इन्द्रियरूप भृत्योंसे रहित मन पंगु पुरुषके समान
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