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________________ श्रावकाचार-संबह मनश्चेन्द्रियभूत्यैश्च रहितं पङ्गवत्सदा । स्वस्थानस्थं विकल्पानां जालं रचयति ध्रुवम् ॥२१० मनोरोधाद्विलीयेत पापं प्राक्कृतमञ्जसा । विषयेषु न वर्तेत नरोऽर्जयति सद-वृषम् ॥२११ ।। मनो न चञ्चलं यस्य तस्य देवा वरप्रवाः । दानपूजोपवासाद्याः सफलाः स्युः सुचेतसः ॥२१२ पञ्चेन्द्रियवमादेव दुर्घरं चरितं चिरम् । क्षामः पालयितुं प्राज्ञो जाघटीति दिवानिशम् ॥२१३ जीवा यत्र हि रक्ष्यन्ते स्थावराः पञ्चधा प्रसाः । विकलास्त्रिविधाश्चैव रक्षणीयाः प्रयत्नतः ।।२१४ पञ्चाक्षा द्विप्रकाराश्च संज्ञिनोऽसंज्ञिनस्तथा। पर्याप्तास्ते तथैवापर्याप्ताः स प्राणिसंयमः ॥२१५ प्राणिहिंसापरित्यागात्सुकृतं जायते महत् । दुष्कृतं दूरतो याति दयामनस सदा ॥२१६ । कारुण्यकलितस्वान्तप्राणिनां प्राणराणात् । न दुःखं जायते क्वापि तोषः सम्पद्यते सदा ॥२१७ स्वाध्यायं संयमं चापि चतुर्थे च पदेऽन्तरे । कथयित्वा प्रवक्ष्येऽहं तपोदानाख्यकर्मणी ॥२१८ बाह्यमाभ्यन्तरं चेति तपो द्विविधमुच्यते । एकैकं षड्विषं ज्ञेयं कर्मकक्षदवानलम् ॥२१९ तपोऽनशनकं चावमोदयं च द्वितीयकम् । वृत्तिसंख्याभिधानं च रसत्यागाभिधं ततः ॥२२० पञ्चमं परमं विद्धि विविक्तशयनासनम् । कायक्लेशाभिधं षष्ठं तपोऽतीव प्रियं सताम् ॥२२१ प्रायश्चित्तं च विनयो वैयावृत्त्यं विशेषतः । स्वाध्यायश्चापि व्युत्सर्गो ध्यानं षोढेति तन्मतम् ॥२२२ होता है और वह अपने स्थानपर स्थित रहते हुए ही नियमसे नाना प्रकारके संकल्प-विकल्पोंका जाल रचता रहता है॥२१०॥ मनके निरोध करनेसे यह फिर विषयों में नहीं प्रवर्तता है. उस समय पूर्वकृत पाप नियमसे विलीन हो जाते हैं और मन शान्त होकर उत्तम धर्मका उपार्जन करता है ॥२१॥ जिसका मन चंचल नहीं है. उसको देवता अभीष्ट वर प्रदान करते हैं तथा उसी सचेता पुरुषके दान पूजा और उपवास आदिक सफल होते हैं ॥२१२।। पाँचों इन्द्रियोंके दमन करनेसे ही ज्ञानी पुरुष चिरकालसे दुर्धर चारित्रको रात-दिन पालन करनेके लिए समर्थ होता है ।।२१३।। इस प्रकार इन्द्रिय संयमका वर्णन किया। अब प्राणिसंयमका निरूपण करते हैं-जहाँपर पांच प्रकारके स्थावर जीवों और त्रस जीवोंकी रक्षा की जाती है, वहाँपर प्राणिसंयम होता है। प्राणिसंयम पालन करनेवाले पुरुषको तीन प्रकारके विकलेन्द्रिय जीवोंकी प्रयत्न पूर्वक रक्षा करनो चाहिए ॥२१४|| पंचेन्द्रिय जीव दो प्रकारके होते हैं-संजी और असंज्ञो । ये सभी उपर्युक्त जीव पर्याप्तक भी होते हैं और अपर्याप्तक भी होते हैं । इन सर्व प्रकारके जीवोंकी रक्षा करना प्राणिसंयम है ।।२१५॥ प्राणियोंकी हिंसाके परित्यागसे महान् सुकृत (पुण्य) होता है और उस दयालुचित्त पुरुषके दुष्कृत (पाप) सदा दूर भागते हैं ॥२१६।। प्राणियोंके प्राणोंकी रक्षा करनेसे करुणा-संयुक्त चित्तवाले जीवोंके कहींपर भो दुःख नहीं होता है और सदा सन्तोष प्राप्त होता है ॥२१७। इस प्रकार तृतीय और चतुर्थ पदमें स्वाध्याय और संयमको कहकर अब में पांचवें तप और छठे दान नामके आवश्यक कर्मोको कहूँगा ।।२१८|| बाह्य और आभ्यन्तरके भेदसे तप दो प्रकारका कहा गया है। ये दोनों ही छह छह प्रकारके हैं । तपको कर्मरूपी वनके जलानेके लिए दावानल जानना चाहिए ॥२१९|| बाह्य तप छह प्रकारका है-- १. अनशन, २. अवमोदर्य, ३. वृत्तिपरिसंख्यान, ४. रसपरित्याग, ५. विविक्तशय्यासन और ६: कायक्लेश । ये तप सन्तजनोंको अतीव प्यारे होते हैं ॥२२०-२२१।। अन्तरंग तप भी छह प्रकारका माना गया है-१. प्रायश्चित्त, २. विनय, ३. वैयावृत्त्य, ४. स्वाध्याय, ५. व्युत्सर्ग और ध्यान ।।२२२।। यह बारह प्रकारका तप सम्यक् प्रकारसे तप करके मुनीश्वर धातिया कर्मोंका क्षय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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