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________________ ११८ बावकाचार-संबह उत्तमा मध्यमा ये च जघन्या बपि मानवाः । गुरु विना न तेऽपि स्युगुरुः सेव्यो महानतः ॥१८४ शुभाशुभमहाकर्मकलिता मनुजाः सदा । गुरुपदिष्टाचारेण जायन्ते गुरवो गुणैः ॥१८५ शिष्यानुग्रहकर्ता यो दुरितेन्धनपावकः । पञ्चेन्द्रियमहाभोगविरतो विश्ववन्दितः ॥१८६ प्रमादमवमुक्तात्मा जिनाज्ञाप्रतिपालकः । शास्त्राणां पाठने शक्तः पठने च सदा पटुः ॥१८७ धर्मोपदेशपीयूषप्रक्षालितमनोमलः । सम्यक्त्वरलालङ्कारः सम्यग्ज्ञानसुभोजनः ।।१८८ सम्यक्चारित्रसद्वस्त्रवेष्टिताङ्गो विशुद्धघोः । महोपशममातङ्गसमारूढः शुभाशयः ।।१८९ सर्वजीवहितः सर्वजीवकल्याणकारकः । पापमिथ्यात्वदुष्कर्महारको भवतारकः ॥१९० मुक्तबाह्यान्तरप्रन्यो जैनधर्मप्रभावकः । गणी सर्वगणाधारो मूलमार्गप्रदर्शकः ॥१९१ इत्यादिगुणसद्रलसमुद्रो गुरुराट् भवेत् । भव्यजीवान् भवाम्भोधौ पततोऽप्यवलम्बनम् ॥१९२ गुरु विना न कोऽप्यस्ति भव्यानां भवतारकः । मोक्षमार्गप्रणेता च सेव्योऽतः श्रीगुरुः सताम् ॥१९३ गुरूणां गुणयुक्तानां विधेयो विनयो महान् । मनोवचनकायैश्च कृतकारितसम्मतैः ॥१९४ विनयो विदुषा कार्यश्चतुर्षा धर्मसद्धिया। विनयेन गुरोश्चित्तं रञ्जतहनिशं ननु ॥१९५ सुराः सेवां प्रकुर्वन्ति दासत्वं रिपवोऽखिलाः । सिध्यन्ति विविधा विद्या विनयादेव धीमताम् ॥१९६ सुख पानेके लिए गुरुओंकी सेवा करनी चाहिए ।।१८३॥ संसारमें जितने भी उत्तम, मध्यम और बघन्य मनुष्य हैं, वे भी गुरुके विना नहीं रहते हैं, अतः श्रावकको महान् गुरुकी सेवा करनी ही चाहिए ॥१८॥ मनुष्य सदा ही शभ और अशुभ महाकर्म करते रहते हैं, अतः वे गुरुके द्वारा उपदिष्ट आचारसे शुद्ध होकर गुणोंसे गुरु बन जाते हैं ।।१८५।। अब आचार्य गुरुका स्वरूप कहते हैं जो शिष्योंका अनुग्रह करनेवाला हो, पापरूप इन्धनको जलानेके लिए अग्नितुल्य हो, पांचों इन्द्रियोंके महान् भोगोंसे विरक्त हो, विश्ववन्दित हो, प्रमाद और मदसे विमुक्त हो, जिन-आज्ञाका प्रतिपालक हो, शास्त्रोंके पढ़ानेमें सदा निरत रहता हो और स्वयं भो शास्त्र-पठनमें पटु हो, धर्मोपदेशरूप अमृतसे लोगोंके मनोमलको धो देनेवाला हो, सम्यक्त्वरूप रलसे अलंकृत हो, सम्यग्ज्ञानरूप उत्तम भोजन करनेवाला हो, जिसका शरीर सम्यक्चारित्ररूप उत्तम वस्त्रसे वेष्टित हो, विशुद्ध बुद्धि हो, महान् उपशमभावरूप गजराजपर समारूढ हो, उत्तम अभिप्रायवाला हो, 'सर्वजीवोंका हितैषी और सर्वप्राणियोंका कल्याणकर्ता हो, पाप, मिथ्यात्व और दुष्कर्मोका दूर करनेवाला हो, संसारसे पार उतारनेवाला हो, बाहरी और भीतरी परिग्रहसे विमुक्त हो, जैनधर्मको प्रभावना करनेवाला हो, गणका स्वामी हो, सर्वगणका आधार हो और जैनधर्मके मूल मार्गका प्रदर्शक हो। इनको आदि लेकर अनेक उत्तम गुणरूप रत्नोंका सागर हो, ऐसा गुरुराज ही संसार-समुद्र में पड़े हुए भव्य जीवोंको हस्तावलम्बन दे सकता है ॥१८६-१९२।। गुरुके विना भव्य जीवोंको भवसे पार उतारनेवाला और कोई भी नहीं है, और न गुरुके विना अन्य कोई मोक्षमार्गका प्रणेता ही हो सकता है। अतः सज्जनोंको श्रीगुरुकी सेवा करनी चाहिये ॥१९३॥ गुणोंसे संयुक्त गुरुओंका मन वचन कायसे और कृत कारित अनुमोदनासे महान् विनय करनी चाहिये ॥१९४॥ धर्ममें सद्बुद्धि रखनेवाले विद्वान्को दर्शन ज्ञान चारित्र और उपचारस्प चार प्रकारकी विनय करनी चाहिये। विनयके द्वारा निश्चयसे गुरुका चित्त रात दिन प्रसन्न रहता है ॥१९५॥ विनयसे देव सेवा करते हैं, सर्वशत्रु दासपना करते हैं और विनयसे ही बुद्धिमानों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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