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________________ उमास्वामि- आवकाबार आम्रनारिङ्ग जम्बीरकवल्यादितरूद्भवेः । फलैयंजति सर्वज्ञं लभतेऽपीहितं फलम् ॥ १७० जल गन्धाक्षतातीवसुगन्धिकुसुमैः कृती । पुष्पाञ्जलि ददन् दिव्यां जिनाग्रे लभते सुखम् ॥१७१ पुष्पाञ्जलिप्रदानेन महापुण्यं प्रजायते । तेन स्वकोषदुःखेभ्यो नरो दत्ते जलाञ्जलिम् ॥१७२ नामतः स्थापनातश्च द्रव्यतो भावतोऽपि तम् । विन्यस्य पुण्यसम्प्राप्त्यै पूजयन्तु जिनेश्वरम् ॥१७३ विना न्यासं न पूज्यः स्यान्न वन्द्योऽसौ दृषत्समः । सुखं न जनयेन्न्यासर्वाजितः प्राणिनां क्वचित् ९७४ अतद्गुणेषु भावेषु व्यवहारप्रसिद्धये । यत्संज्ञाकर्म तन्नाम नरेच्छावशवर्तनात् : १७५ साकारे वा निराकारे दृषदादौ निवेशनम् । सोऽयमित्यवधानेन स्थापना सा निगद्यते ॥ १७६ आगामिगुणयोग्योऽर्थो द्रव्यन्यासस्य गोचरः । तत्कालपर्ययाक्रान्तं वस्तु भावोऽभिधीयते ॥ १७७ इति चातुविधत्वेन न्यासं कृत्वा सुभावतः । श्रावकैः शुद्धसम्यक्त्वैः पूजा कार्या स्वशक्तितः ॥१७८ जिनेश्वर गुणग्राम रञ्जितैर्यतिसत्तमैः । पूजा भावेन सत्कार्या सर्वपापापहारिणी ॥ १७९ त्रिकालं क्रियते भव्यैः पूजापुण्यविधायिनी । या कृता पापसंघातं हन्त्याजन्मसमजतम् ॥१८० पूर्वा हरते पापं मध्याह्ने कुरुते श्रियम् । ददाति मोक्षं सन्ध्यायां जिनपूजा निरन्तरम् ॥१८१ इत्येवं जिन पूजां च वर्णयित्वा युगे पदे । गुरूपास्ति प्रवक्ष्येऽहं सर्वसौख्यस्य कारिणीम् ॥१८२ गुरुसेवा विधातव्या मनोवाञ्छितसिद्धये । संशयध्वान्तनाशार्थमिहामुत्र सुखाय च ॥१८३ करना है, वह सर्व जनताके नेत्रोंका वल्लभ होता है || १६९ || जो भव्य आम, नारंगी, नीबू, केला आदि वृक्षोंसे उत्पन्न हुए फलोंके द्वारा सर्वज्ञदेवकी पूजा करता है, वह मनोवांछित फलको पाता है ।। १७ ।। जल गन्ध अक्षत और अतीव सुगन्धित पुष्पोंके द्वारा जिनदेवके आगे दिव्य पुष्पाञ्जलि देनेवाला कृती पुरुष सुखको पाता है || १७१ || पुष्पाञ्जलि प्रदान करनेसे महान् पुण्य प्राप्त होता है । उसके द्वारा मनुष्य अपने सर्वदुःखों के लिए जलाञ्जलि दे देता है ॥ १७२ ॥ गृहस्थोंकी पुण्यकी प्राप्तिकं । लए नाम स्थापना द्रव्य और भाव निक्षेपसे जिनेश्वरको स्थापना करके उनकी पूजा करनी चाहिए || १७३ || विना स्थापना किये प्रतिमा न पूज्य होती है और न वन्दनीय ही होती है । प्रत्युत वह तो पाषाण समान ही रहती है । स्थापना - रहित प्रतिमा प्राणियोंको कभी भी कहीं पर सुख नहीं दे सकती है || १७४|| अपने गुणोंसे रहित पदार्थों में व्यवहार चलाने के लिए मनुष्यों को इच्छाके वशसे जो संज्ञाकर्म किया जाता है, वह नामनिक्षेप कहलाता है || १७५ ॥ साकार या निराकार पाषाण आदिमें 'यह वही है' इस प्रकारके अभिप्रायसे जो अभिनिवेश किया जाता है, वह स्थापना कही जाती है || १७६ || आगामी कालमें गुणोंकी प्राप्तिके योग्य पदार्थ द्रव्यनिक्षेपका विषय है । और वर्तमान कालकी पर्यायसे संयुक्त पदार्थ भाव निक्षेप कहा जाता है || १७७|| इस प्रकार चारों विधियोंसे उत्तम भाव पूर्वक जिनेन्द्रदेवका न्यास करके शुद्ध सम्यक्त्वी श्रावकोंको अपनी शक्ति के अनुसार जिनदेवकी पूजा करनी चाहिए || १७८ || जिनेश्वर देवके गुण-समूहसे अनुरंजित उत्तम साधुजनोंको सर्व पापों का अपहरण करनेवाली भावपूजा करनी चाहिए ॥ १७९ ॥ पुण्यका विधान करनेवाली जिनपूजा भव्यजन तीनों ही सन्ध्याकालोंमें करते हैं । विधिवत् की गई जिनपूजा जन्म-जन्मके उपार्जित पापसमूहको नष्ट कर देती है ॥ १८० ॥ निरन्तर प्रभातमें की गई जिनपूजा पापको दूर करती है, मध्याह्नमें की गई जिनपूजा लक्ष्मीको करती है और सन्ध्याकाल में की गई जिनपूजा मोक्षको देता है || १८१ ॥ इस प्रकार श्रावकके दूसरे पदमें जिन पूजाका वर्णन करके अब में सर्व सुखको करनेवाली गुरूपास्तिका वर्णन करूंगा ॥१८२॥ श्रावकोंको मनोवांछित कार्य की सिद्धिके लिए, इस लोकॄमें संशयरूप अन्धकारके नाशके लिए और परलोकमें Jain Education International १६७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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