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________________ भावकापार-संग्रह शुद्धियुक्तो जिनान् भावात् पूजयेद्यः समाहितः । ईप्सितार्थस्य संसिद्धि लभते सोऽपि मानवः ॥१५६ त्रिसन्ध्यं प्रायेद्यस्तु जिनादीन् जितमत्सरः । सौधर्मादिषु कल्पेषु जायते सुरनायकः ॥१५७ एकवारं सुभावैर्य. पूजयति जिनाकृतिम् । सः सुरत्वं समाप्नोति हत्वा दुष्कृतसन्ततिम् ॥१५८ प्रतिमा पूजयेद् भक्त्या जिनेन्द्रस्य जितैनसः । यः सः संपूज्यते देवैमृतोऽपि मनुजोत्तमः ॥१५९ सा पूजाऽष्टविधा ज्ञेया गृहिणी-गृहमेधिनाम् । जलादिफलपर्यन्ता भवान्तकरणक्षमा ॥१६० जिनेन्द्रप्रतिमा भव्यः स्नपयेत्पञ्चकामृतैः । तस्य नस्यति सन्तापः शरीरादिसमुद्भवः ॥१६१ धीमतां श्रीजिनेन्द्राणां प्रतिमाने च पुण्यवान् । ददाति जलवारां यस्तिस्रो भृङ्गारनालतः॥१६२ जन्ममृत्युजरादुःखं कमात्तस्य क्षयं व्रजेत् । स्वल्पैरेव भवैः पापरजा शाम्यति निश्चितम् ॥१६३ चन्दनावपर्चनापुण्यात्सुगन्धितनुभाग भवेत् । सुगन्धीकृतदिग्भागो जायते च भवे भवे ॥१६४ अखण्डतन्दुलैः शुभैः सुगन्धः शुभशालिजैः । पूजयेज्जिनपादाब्जानक्षयां लभते रमाम् ॥१६५ पुष्पैः संपूजयन् भव्योऽमरस्त्रीलोचनैः सदा । पूज्यतेऽमरलोके स देवोनिकरमव्यगः ॥१६६ पक्वान्नादिसुनैवेद्यः प्राचंयत्यनिशं जिनान् । स भुनक्ति महासौख्यं पञ्चेन्द्रियसमुद्भवम् ॥१६७ रत्नचञ्चलकर्पूरभवैर्दोपैजिनेशिनाम् । दद्योतयेदयः पुमानज्री स स्यात्कान्तिकलानिधिः ॥१६८ कृष्णागुर्वाविजे पैषूपयेज्जिनपदयुगम् । सः सर्वजनतानेत्रवल्लभः संप्रजायते ॥१६९ पुनः शुद्धियुक्त होकर समाधानको प्राप्त जो मनुष्य भावसे जिनभगवान्का पूजन करता है, वह मनोवांछित अर्थकी सिद्धिको प्राप्त करता है ॥१५६।। जो श्रावक मत्सरभावको जीतकर तीनों सन्ध्याकालोंमें जिनेन्द्रदेव आदिके पूजनको करता है, वह सौधर्म आदि कल्पोंमें उत्पन्न होकर देवोंका नायक इन्द्र बनता है ॥१५७।। जो पुरुष उत्तम भावोंसे एक बार भी जिनेन्द्रके बिम्बका पूजन करता है, वह पाप-सन्तानका नाश कर देवपनेको प्राप्त करता है ॥१५८।। जो मनुष्य पापों के जीतनेवाले जिनेन्द्रदेवका भक्तिसे पूजन करता है, वह उत्तम पुरुष मर करके स्वर्गलोकमें देवोंके द्वारा पूजा जाता है ॥१५९॥ वह पूजा जलको आदि लेकर फल-पर्यन्त आठ प्रकारको जाननी चाहिए। यह पूजा गृहस्थ स्त्री और पुरुषोंके संसारका अन्त करने में समर्थ है ॥१६०॥ भव्य पुरुषको जिनेन्द्रदेवकी प्रतिमाका पंचामृतसे अभिषेक करना चाहिए। जो पंचामृतसे अभिषेक करता है, उसके शरीर आदिमें उत्पन्न हुआ सन्ताप नष्ट हो जाता है ।।१६१।। जो पुण्यवान् श्रावक श्रीमन्त श्री जिनेन्द्रभगवन्तोंकी प्रतिमाके आगे भृगारके नालसे तीन जलधारा देता है, उसके जन्म जरा मरणका दुःख क्रमसे क्षयको प्राप्त हो जाता है और थोड़े ही भवोंमें उसका पापरज निश्चितरूपसे शान्त हो जाता है ॥१६२-१६३॥ चन्द्रन आदिके द्वारा पूजन करनेके पुण्यसे मनुष्य सुगन्धित शरीरको धारण करनेवाला होता है तथा भव-भवमें अपने यशःसौरभसे दशों दिशाओंको सुगन्धित करता है ।।१६४।। उत्तम शालिसे उत्पन्न हुए, उज्ज्वल, सुगन्धित, उत्खण्ड तन्दूलोंसे जो जिनदेवके चरण-कमलोंको पूजता है, वह अक्षय लक्ष्मीको प्राप्त करता है ॥१६५।। पुष्पोंसे जिनदेवको पूजनेवाला भव्य पुरुष देवलोकमें देवियोंके समूहके मध्यको प्राप्त होकर देवांगनाओंके नयनोंके द्वारा सदा पूजा जाता है ॥१६६।। जो पकवान आदि उत्तम नैवेद्यके द्वारा जिनेन्द्रदेवोंका निरन्तर पूजन करता है, वह पांचों इन्द्रियोंसे उत्पन्न हुए महान् सुखको भोगता है ॥१६७॥ जो पुरुष रत्न और चंचल कपूरको ज्योतिवाले दीपोंसे जिनेन्द्रदेवके चरणोंको प्रकाशित करता है, वह कान्ति और कलाओंका निधान होता है ॥१६८॥ जो कृष्णागुरु आदिसे उत्पन्न हुई घूपके द्वारा जिनदेवके चरणयुगलको धूपित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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