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________________ उमास्वामि-श्रावकाचार १६५ पूज्यो जिनपतिः पूजा पुण्यहेतुजिनार्चना । फलं स्वाभ्युदया मुक्तिभंव्यात्मा पूजकः स्मृतः ॥१४६ आवाहनं च प्रथमं ततः संस्थापनं परम् । सन्निधीकरणं कृत्वा पूजनं तदनन्तरम् ॥१४७ ततो विसर्जनं कार्य ततः क्षमापणा मता । पञ्चोपचारापचितिः कर्तव्या होतिसज्जनैः ॥१४८ पूर्व स्नाताऽनुलिप्तापि धौतवस्त्रान्विता परम् । षोडशाभरणोपेता स्यादवधः पूजयेज्जिनम् ॥१४९ सती शीलवतोपेता विनयादिसमन्विता । एकाग्रचित्ता प्रयजेज्जिनान् सम्यक्त्वमण्डिता ॥१५० तक्षा स्रष्टा दिवाकोत्तिश्चित्रकारोऽश्मभेदकः । सूत्रधारः प्रेषकश्च सूत्रधारस्तु माल्यवान् ॥१५१ भरतो दोघंजीवी च मार्दङ्गिकमृणालको। वृती जोवो ग्रन्थिकारः कर्णजाहो नियन्त्रिकः ॥१५२ धर्माध्यक्षास्तु शूद्राश्च स्पृश्याष्टादश सम्मिताः । कार्वकारुप्रभेदेन द्विधा तेषामवस्थितिः ॥१५३ शेषाः शूद्रास्तु वाः स्युजिनमन्दिरकर्मसु । स्वकीयगृहसत्कार्ये तदधीना गृहस्थितिः ॥१५४ एवं सम्यग्विचार्यात्र द्रव्यपात्रादिशुद्धिभाक् । स्वः शुद्धोऽन्यानि संशोध्य सम्यकृत्वा विशोधयेत् ॥१५५ तिलकके लिए सुगन्धित चन्दन केशरको ग्रहण करनेवाला पुरुष भी दोषका भागी नहीं होता है ।।१४५।। पूजाके विषयमें पूज्य, पूजा, पूजक और पूजाका फल ये चार बातें ज्ञातव्य हैं। जिनेन्द्रदेव तो पूज्य हैं अर्थात् पूजा करनेके योग्य हैं। जिनदेवकी अर्चा करना पूजा कहलाती है, जो कि पुण्यका कारण है। सांसारिक अभ्युदयोंकी प्राप्ति और मुक्तिको प्राप्ति यह पूजाका फल है और भव्य जीव पूजक माना गया है ।।१४६।। पूजन करते समय सर्व प्रथम पूज्य पुरुषका आह्वान करे, तत्पश्चात् संस्थापन करे, तदनन्तर सन्निधीकरण करके पूजन करे ।।१४७।। तत्पश्चात् विसर्जन करना चाहिये । उसके बाद क्षमापणा करना आवश्यक माना गया है। यह पाँच प्रकारके उपचारवाली पूजा सज्जनोंको सदा करनी चाहिये ॥१४८।। भावार्थ-पूजनके प्रारम्भमें 'अत्र अवतर अवतर संवौषट्' बोलकर आवाहन करे। पुनः 'अत्र तिष्ठ ठः ठः' बोलकर स्थापन करे। पुनः 'मम सन्निहितो भव भव वषट' बोलकर सन्निधीकरण करे। तदनन्तर 'निर्वपामीति स्वाहा' बोलकर जल-चन्दनादि द्रव्योंसे पूजन करे । अन्तमें 'गच्छ गच्छ' बोलकर विसर्जन करे और क्षमा माँग । यह पाँच उपचार करना पूजनकी विधि कहलाती है । यदि स्त्री पूजन करे, तो पहले स्नान करे, शरीर में चन्दनादिका लेपन करे, धुले वस्त्र पहिरे और सोलह आभूषण धारण कर जिनेन्द्रदेवका पूजन करे ।।१४९।। पूजन करनेवाली स्त्री सती हो, शोलवतको धारण करनेवाली हो, विनय आदि गुणोंसे संयक्त हो, एकाग्र चित्त हो और सम्यक्त्वसे मण्डित हो, ऐसी स्त्री जिन भगवान्का पूजन करे ॥१५०॥ अब ग्रन्थकार स्पृश्य शूद्रोंके नाम कहते हैं-खाती (बढ़ई), कारीगर, दिवाकीर्ति (नाई), चित्रकार, शिलावट, सूत्रधार, शिल्पी, पेशगार, दरजी, मालाकार, भरत (भाट, चारण, गन्धर्व), दीर्घजीवी, मृदंगवादक, सारंगोवादक, आजीवक, सेवक, ग्रन्थिकार (सुनार), कर्णजाह, नियंत्रिक ( सारथी, कोचवान ) और धर्माध्यक्ष (प्रतिहार) ये अठारह प्रकारके स्पृश्य शूद्र माने गये हैं। इन शूद्रोंकी अवस्था कारु और अकारुके भेदसे दो प्रकारकी मानी गयी है ।।१५१-१५३॥ जिन मन्दिरके निर्माण कार्यमें शेष अस्पृश्य शूद्र वर्जनीय हैं। अपने घरके सत्कार्य करने में उक्त शूद्रोंके अधीन ही गृहको स्थिति है ॥१५४॥ इस प्रकार भली-भांतिसे विचार करके जिनमन्दिरके निर्माण आदिमें द्रव्यशुद्धि, पात्रशुद्धि आदिका धारक श्रावक स्वयं शुद्ध होकर और अन्यको सम्यक् प्रकार संशोधन करके पूजनकी सामग्री आदिको शोधे ।।१५५।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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