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________________ श्रावकाचार-संग्रह स्नानविलेपनविभूषणपुष्पवासधूपप्रदीपफलतन्दुलपत्रपूगैः । नैवेद्यवारिवसनैश्चमरातपत्रवादित्रगीतनटस्वस्तिककोशवृद्धया ॥१३६ इत्येकविंशति विधा जिनराजपूजा यद्यप्रियं तदिह भाववशेन योज्यम् । द्रव्याणि वर्षाणि तथा हि कालभावाः सदा नैव समा भवन्ति ॥१३७ शान्तौ श्वेतं जये श्याम भद्रे रक्तं भये हरित् । पोतं धनादिसंलाभे पञ्चवणं तु सिद्धये ॥१३८ खण्डिते गलिते छिन्ने मलिने चै वाससि । दानं पूजा तपो होमः स्वाध्यायो विफलं भवेत् ॥१३९ माल्यगन्धप्रधूपायैः सचित्तः कोऽचयेज्जिनम् । सावद्यसंभवं वक्ति यः स एवं प्रबोध्यते ॥१४० जिनार्चाऽनेकजन्मोत्थं किल्विषं हन्ति यत्कृतम् । सा किं न यजनाचारसंभवं सावद्यमङ्गिनाम् १४१ प्रेर्यन्ते यत्र वातेन दन्तिनः पर्वतोपमाः । तत्राल्पशक्तितेजस्सु का कथा मशकादिषु ॥१४२ भुक्तं स्यात्प्राणनाशाय विषं केवलमङ्गिनाम् । जीवनाय मरीचादिसदौषधिविमिश्रितम् ॥१४३ तथा कुटुम्बभोगार्थमारम्भः पापकृद् भवेत् । धर्मकृद्दानपूजादौ हिंसालेशो मत. सदा ॥१४४ गन्धोदकं च शुद्धयर्थं शेषां सन्ततिवृद्धये । तिलकार्थं च सौगन्ध्यं गृह्णन् स्यान्नहि दोषभाक् ॥१४५ तथा जिसपर भ्रमर गुंजार कर रहे, ऐसे गोशीर्ष चन्दनसे देवाधिदव जिनेन्द्रदेवकी पूजा-सेवाके लिये मैं अपने शरीरको चर्चित करता हूँ, ऐसी भावना करे ॥१३५।। स्नानपूजा, विलेपनपूजा, आभूषणपूजा, पुष्पपूजा, सुगन्धपूजा, धूपपूजा, प्रदीपपूजा, फलपूजा, तन्दुलपूजा, पत्रपूजा, पुंगीफलपूजा, नैवेद्यपूजा, जलपूजा, वसनपूजा, चमरपूजा, छत्रपूजा, वादित्रपूजा, गोतपूजा, नृत्यपूजा, स्वस्तिकपूजा, और कोशवृद्धिपूजा अर्थात् भण्डारमें द्रव्य देना, इस प्रकार जिनराजकी पूजा इक्कीस प्रकार की है। जिसे जो पूजा प्रिय हो, वह उससे भावपूर्वक पूजन करे। क्योंकि सभी मनुष्योंके द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव सदा समान नहीं रहते हैं ॥१३६-१३७|| शान्तिकार्य में श्वेत, जयकार्य में श्याम, कल्याणकार्यमें रक्त, भयकार्यमें हरित, धनादिके लाभमें पीत और सिद्धिके लिये पंचवर्णके वस्त्र पहिने और उसी वर्णके पुष्पादिसे पूजन करे ॥१३८|| खण्डित, गलित, छिन्न और मलिन वस्त्र पहिननेपर दान, पूजा, तप, होम और स्वाध्याय निष्फल होता है ॥१३९|| ___ माला, गन्ध, धूप आदि सचित्त पदार्थोंसे कौन बुद्धिमान् जिन भगवान्का पूजन करेगा, क्योंकि सचित्त वस्तुओंसे पूजन करने में पापकी सम्भावना है, ऐसी जो आशंका करता है, ग्रन्थकार उसे इस प्रकार सम्बोधित करते हैं कि जो जिनेन्द्र-पूजन अनेक जन्मोंमें उपाजित पापोंका नाश करता है, वह क्या प्राणियोंके पूजन विधिके आचारसे उत्पन्न हुए पापका नाश नहीं करेगा ? अर्थात् अवश्य ही करेगा ॥१४०-१४१।। जिस पवनके द्वारा पर्वतोंके सदृश हाथी उड़ा दिये जाते हैं, वहाँपर अल्प शक्ति और अल्प तेजवाले मच्छर आदिकी क्या कथा है ? अर्थात् वे तो उड़ा ही दिये जावेंगे ॥१४२।। यदि केवल विष खाया जाय, तो वह प्राणियोंके प्राणोंका नाश करनेवाला होता है। और वही विष जब कालीमिर्च आदि उत्तम औषधियोंसे मिश्रित करके खाया जाता है, तब वह प्राणियोंके जीवनके लिए होता है ॥१४३।। उसी प्रकार जो आरम्भ कुटुम्बके भोगके लिए किया जाता है, वह पापका उपार्जन करनेवाला होता है, किन्तु दान-पूजा आदिमें किया गया आरम्भ तो सदा धर्मका करनेवाला होता है। हाँ, उसमें हिंसाका लेश अवश्य माना गया है ।।१४४।। यद्यपि निर्माल्य वस्तुका ग्रहण करना दोषकारक है, तथापि गन्धोदकका ग्रहण करना शुद्धिके लिए और आशिकाको ग्रहण करना सन्तान वृद्धिके लिए माना गया है। इसी प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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