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________________ उमास्वामि-भावकाचार श्रीचन्दनं विना नैव पूजां कुर्यात्कदाचन । प्रभाते घनसारस्य पूजा कार्या विचाः ॥१२५ मध्याह्न कुसुमैः पूजां सन्ध्यायां दीपधूपयुक् । वामाङ्गे धूपदाहः स्याद्दीपपूजा च सन्मुखी ॥१२६ अहंतो दक्षिणे भागे दीपस्य च निवेशनम् । ध्यानं च दक्षिणे भागे चैत्यानां वन्दना ततः ॥१२७ गन्धधूपाक्षतस्रग्भिः प्रदीपफलवारिभिः । प्रभातकालेऽपचितिविधेया श्रीजिनेशिनः ॥१२८ पद्मचम्पकजात्यादिस्रग्भिः संपूजयेज्जिनान् । पुष्पाभावे प्रकुर्वीत पोताक्षतभवैः समः ॥१२९ नैव पुष्पं द्विधा कुर्यान्न छिन्ध्यात्कलिकामपि । चम्पकोत्पलभेदेन यतिहत्या समं फलम् । १३० हस्तात्प्रस्खलितं शितो निपतितं लग्नं क्वचित्पादयोः यन्मू|वंगतं धृतं कुवसने नाभेरघो यद-वृतम् । स्पृष्टं दुष्टजनैर्धनैरभिहतं यदूषितं कण्टकै स्त्याज्यं तत्कुसुमं वदन्ति विबुधा भक्त्या जिनप्रीतये ॥१३१ स्पृश्यशूद्रादिज स्पृश्यमस्पृश्यादपसारितम् । पुष्पं देयं महाभक्त्या न तु दुष्टजनैधृतम् ॥१३२ पयोऽथ गां जलार्थ वा कूपं पुष्पेषु हेतवे । वाटिकां संप्रकुर्वन्ना नातिदोषधरो भवेत् ॥१३३ शुद्धतोयेक्षुपिभिर्दुग्धदध्याम्रजै रसैः । सर्वोषधिभिरुच्चूर्णर्भावात्संस्नापयेज्जिनम् ॥१३४ पूज्यपूजावशेषेण गोशोषेण हृतालिना । देवाधिदेवसेवायै स्ववपुश्चर्चयेऽमुना ॥१३५ और वस्त्र-वेष्टित हो। ऐसा पुरुष जिनेन्द्रदेवकी पूजा करे ॥१२३-१२४।। श्रीचन्दनके विना कदाचित् भी पूजा नहीं करनी चाहिए। ज्ञानीजनोंको प्रातःकाल चन्दनसे पूजा करनी चाहिये । मध्याह्नमें पुष्पोंसे और सन्ध्यासमयमें दीप-धूपसे पूजन करना चाहिये । पूजन करते समय अपने वाम अंगकी ओर धूपदहन रखना चाहिये और दीपसे पूजा आरती सन्मुख होकर करना चाहिए ॥१२५-१२६।। अरहन्त भगवन्तके दक्षिण भागमें दीपक स्थापित करना चाहिये तथा देवके दक्षिण भागमें बेठकर ध्यान और चेत्योंकी वन्दना करना चाहिए ॥१२७|| प्रभातकालमें श्रीजिनेश्वरदेवको पूजा गन्ध, धूप, अक्षत, पुष्पमाल, प्रदीप, फल और जलसे करना चाहिए ॥१२८॥ कमल, चम्पक, चमेली आदिके पुष्पोंकी मालाओंसे जिनेन्द्रदेवका पूजन करे। पुष्पोंके अभावमें पीले अक्षतोंसे बने हुए पुष्पोंसे पूजा करे ॥१२९।। पूजनके समय पुष्पके दो टुकड़े नहीं करे, और न पुष्पकलीको ही छेदे । क्योंकि चम्पक, कमल आदि पुष्पोंको भेदन करके पूजन करनेपर साधुकी हत्याके समान फल कहा गया है ।।१३०॥ जो पुष्प हाथसे छूटकर भूमिपर गिर गया हो, पैरोंमें कहींपर लग गया हो, जो मस्तकके ऊपर रख लिया गया हो, जो खोटे (गन्दे) वस्त्रमें रख गया हो, जो नाभिके अधोभागमें रखकर लाया गया हो, जिसे दुष्टजनोंने स्पर्श कर लिया हो, जो घन-प्रहारसे ताडित हो, और जो काँटोंसे दूषित हो, ऐसे पुष्पको ज्ञानीजन भक्तिसे जिनदेवकी प्रीतिके लिये त्याज्य कहते हैं ॥१३१ः स्पृश्य शूद्रादिके द्वारा लाया गया पुष्प तो स्पृश्य है, किन्तु अस्पृश्य शूद्रके द्वारा लाया गया पुष्प पूजाके लिए निषिद्ध है। अतः उच्च कुल वालोंके द्वारा लाया गया पुष्प महाभक्तिके साथ पूजामें चढ़ाना चाहिये। किन्तु दुष्टजनोंके द्वारा लाया गया पुष्प पूजाके योग्य नहीं है ॥१३२।। दूधके लिये गायको रखनेवाला, जलके लिये कूपको बनवानेवाला और पुष्पोंके लिये वाटिका करनेवाला पुरुष अधिक दोषका धारक नहीं है ॥१३३॥ शुद्ध जल, इक्षु-रस, घृत, दुग्ध, दधि, और आम्रजनित रसोंसे, तथा सर्वौषधियोंके चूर्णसे भावपूर्वक जिनदेवका अभिषेक करना चाहिये ॥१३४॥ पूज्य जिनेन्द्रदेवकी पूजा करनेसे अवशिष्ट रहे हुए; शरटल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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