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________________ भावकाचार-संबह पूर्वस्या श्रीगृहं कार्यमाग्नेथ्यो तु महानसम् । शयनं दक्षिणस्यां तु नैऋत्यामायुधादिकम् ॥११२ भजिक्रिया पश्चिमस्यां वायव्ये धनसंग्रहः । उत्तरस्यां जलस्थानमैशान्यां देवसद-गृहम् ॥११३ अङ्गाधमात्र बिम्बं च यः कृत्वा नित्यमर्चयेत् । तत्फलं न च वक्तुं हि शक्यतेऽसंख्यपुण्ययुक् ॥११४ बिम्बीवलसमे चैत्ये यवमानं सुबिम्बकम् । यः करोति हि तस्यैव मुक्तिर्भवति सन्निधिः ॥११५ तथार्चकः पूर्वदिशि वोत्तरस्यां च सम्मुखः । दक्षिणस्यां दिशायां च विदिशायां च वर्जयेत् ॥११६ पश्चिमाभिमुखः कुर्यात्पूजां चेच्छोजिनेशिनः । तदा स्यात्सन्ततिच्छेदो दक्षिणस्यामसन्ततिः ॥११७ आग्नेय्यां च कृता पूजा धनहानिदिने दिने । वायव्यां सन्तति व नैऋत्यां तु कुलक्षयः ॥११८ ईशान्यां नैव कर्तव्या पूजा सौभाग्यहारिणी । पूर्वस्यां शान्तिपुष्टयर्थमुत्तरे च धनागमः ॥११९ तिलकैस्तु विना पूजा न कार्या गृहमेधिभिः । अघ्रिजानुकरांसेषु मूनि पूजा यथाक्रमम् ॥१२० भाले कण्ठे हृदि भुजे उदरे चिह्नकारणः । नवभिस्तिलकैः पूजा करणीया निरन्तरम् ॥१२१ ।। मुक्तिश्रिया ललाम वा तिलकं समुदाहृतम् । तेनानर्थत्वमिन्द्रस्य पूजकस्य च तैविना ॥१२२ । षोडशाभरणोपेतः साङ्गोपाङ्गस्तु पूजकः । विनयी भक्तिमान् शक्तः श्रद्धावान् लोभजितः ॥१२३ पद्मासनसमासीनो नासाग्रन्यस्तलोचनः । मौनी वस्त्रावृतास्योऽयं पूजां कुर्याज्जिनेशिनः ॥१२४ पूज्य नहीं है, उसे नदी समुद्रादिकमें विसर्जित कर देना चाहिए ॥१११।। श्रावकको अपने घरकी पूर्वदिशामें श्रीगृह कराना चाहिए, आग्नेय दिशामें रसोई बनवाना चाहिये, दक्षिण दिशामें शयन करना चाहिए, नैऋत्य दिशामें आयुध आदिक रखना चाहिये, पश्चिम दिशामें भोजन क्रिया करना चाहिए, वायव्यदिशामें धनसंग्रह करना चाहिए, उत्तर दिशामें जलस्थान रखना चाहिए और ईशानदिशामें देव-गृह बनवाना चाहिए ॥११२-११३।। जो श्रावक अंगुष्ठप्रमाण भी जिनबिम्बको निर्माण कराके नित्य पूजन करता है, उसका फल कहनेके लिये कोई भी पुरुष समर्थ नहीं है, वह असंख्य पुण्यका उपार्जन करता है ॥११४॥ जो पुरुष बिम्बीदल (किन्दूरीके पत्र) के समान चैत्यालय बनवा करके उसमें यव (जौ) प्रमाण भी जिनबिम्बको स्थापन कर उसका प्रतिदिन पूजन करता है, उसके ही मुक्ति समीपवर्तिनी होती है ॥११५।। तथा पूजा करनेवाला पुरुष पूर्वदिशामें अथवा उत्तरदिशामें मुख करके जिनेन्द्रका पूजन करे। दक्षिण दिशामें और विदिशाओंमें मुख करके पूजन नहीं करना चाहिए ।।११६॥ जो पुरुष पश्चिम दिशाकी ओर मुख करके श्रीजिनेश्वरदेवकी पूजा करेगा, उसकी सन्तानका विच्छेद होगा, और दक्षिणदिशामें मुख करके पूजन करनेवालेके सन्तान नहीं होगी ॥११७|| आग्नेयदिशामें मुख करके पूजा करनेवालेके दिन-प्रतिदिन धनकी हानि होती है। वायव्य दिशामें मुख कर पूजन करनेवालेके सन्तान नहीं होती है, नैऋत्य दिशामें मुखकर पुजन करनेवालेका कलक्षय होता है॥११८॥ ईशान दिशामें मख करके पजा नहीं करना चाहिए क्योंकि वह सौभाग्यका अपहरण करती है । शान्ति और पुष्टिके लिए पूर्वदिशामें मुख करके पूजन करना चाहिए । उत्तर दिशामें मुख करके पूजन करनेपर धनकी प्राप्ति होती है ।।११९।। गृहस्थोंको तिलक लगाये विना पूजा नहीं करनी चाहिये । चरण, जांघ, हाथ, कन्धा, मस्तक, भाल, कण्ठ, हृदय, भुजा और उदर इन नौ स्थानोंपर तिलक चिह्न करके सदा पूजा करनी चाहिये ॥१२०-१२१॥ तिलक मुक्तिलक्ष्मीका सुन्दर आभषण कहा गया है. इस कारण उन तिलकोंके विना पजक इन्द्रकी पजा निरर्थक है ||१२२।। भगवान्की पूजा करनेवाला पुरुष सोलह आभषणास भूषित हो, अंग-उपांगसे सहित हो, विनयी हो, भक्तिवाला हो, समर्थ हो, श्रद्धावान् हो, लोभरहित हो, पद्मासनसे अवस्थित हो, नासाके अग्नभागपर दृष्टि रखनेवाला हो, मौन-धारक हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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