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उमास्वामि-श्रावकाचार दोषाश्चापि तथा हेयास्ते के साम्प्रतमुच्यते । मूढत्रयं चाष्ट मदास्तथाऽनायतनानि षट् । शङ्कादयस्तथा चाष्टौ कुदोषाः पञ्चविंशतिः ॥८० (षट्पदी श्लोकः) वरप्राप्त्यर्थमाशावान् प्राणिघातोद्यताः खलाः । रागद्वेषाकुलाः सर्वाः क्रूरा हेया जिनागमे ।
यास्तासां यः करोत्येवमुपास्ति देवमूढभाक् ॥८१ (षट्पदी श्लोकः) ग्रहणस्नानसूर्यार्घाश्वास्त्रद्विपसपर्यणम् । जाह्नवीसिन्धुसंस्नानं सङ्क्रान्तौ दानमेव च ॥८२ गोमूत्रवन्दनं पृष्ठवन्दनं वटपूजनम् । देहलीमृतपिण्डादिदानं लोकस्य मूढता ॥८३ सग्रन्थारम्भयुक्ताश्च मन्त्रौषधिविराजिताः । पाखण्डिनस्तद्विनयः शुश्रूषा तद्विमूढता ।।८४ ज्ञानं पूजां कुलं जाति बलमृद्धि तपो वपुः । अष्टौ चाश्रित्य दर्पित्वं गतदर्पा मदं न्यगुः ॥८५ मिथ्यादृष्टिनिं चरणममीभिः समाहितः पुरुषः । वर्शनकल्पद्रुमवनवह्निरिवेदं स्वनायतनमुद्धम् ।।८६ इत्यादिदूषणैर्मुक्तं मुक्तिप्रीतिनिबन्धनम् । सम्यक्त्वं सम्यगाराध्यं संसारभयभीरुभिः ॥८७ सम्यक्त्वसंयुतः प्राणी मिथ्यावासेषु जायते । द्वादशेषु न तिर्यक्षु नारकेषु नपुंसके ॥८८ स्त्रीत्वे च दुःकृताल्पायुर्दारिद्रादिकजिते । भवनत्रिषु षद्भुषु तद्देवीषु न जायते ॥८९
आठ गुणोंसे युक्त सम्यक्त्व विद्यमान रहता है, उसके घरमें निर्मल लक्ष्मी रात-दिन सदा निवास करतो है ॥७९|| सम्यग्दर्शनके जो दोष हैं, वे सदा हेय हैं। वे दोष कौन हैं ? ऐसा पूछनेपर ग्रन्थकार कहते हैं कि तीन मूढता, आठ मद, छह अनायतन और शंका आदिक आठ दोष ये पच्चीस कुदोष हैं, इनके कारण सम्यग्दर्शन निर्मल और स्थिर नहीं रहने पाता है ।।८०॥ जो प्राणियोंकी हिंसा करने में उद्यत हैं, दोषयुक्त हैं, राग-द्वेषसे आकुलित हैं और क्रूर हैं, ऐसे सभी देवी-देवता जिनागममें हेय कहे गये हैं, जो पुरुष इच्छित वर पानेके लिए आशावान् होकर उनकी उपासना आराधना करता है, वह देवमूढता धारक है ।।८१॥ सूर्य-चन्द्रके ग्रहणके समय स्नान करना, सूर्यको अर्घ चढ़ाना, घोड़ा, शस्त्र और हाथीकी पूजा करना, गंगा और सिन्धुमें स्नान करना, संक्रान्तिमें दान देना; गोमूत्रका वन्दन करना, गायकी पीठकी वन्दना करना, वट वृक्षपीपल आदिका पूजना, देहलीका पूजना और मृतपुरुषको पिण्डदान देना आदि कार्य लोकमूढता कहलाते हैं ।।८२-८३।। जो परिग्रह और आरम्भसे युक्त हैं, मन्त्र और औषधि आदिसे विराजमान हैं, ऐसे पाखण्डी जनोंकी विनय करना, उनकी शुश्रूषा करना सो पाखण्डिमूढता है॥८४|| ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, बल, ऋद्धि, तप और शरीर इन आठके आश्रयको लेकर दर्प करनेको दर्प. रहित आचार्योंने मद कहा है ।।८५।। मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र और इन तीनोंके धारक पुरुष ये छह अनायतन कहलाते हैं। ये सम्यग्दर्शनरूप कल्पवृक्षोंके वनको जलानेके लिए प्रबल दावाग्निके समान हैं ॥८६॥ संसारके भयसे डरनेवाले पुरुषोंको ऊपर कहे गये दूषणोंसे रहित और मुक्तिरमाकी प्रीतिका कारणभूत सम्यक्त्वका सम्यक्प्रकारसे आराधन करना चाहिए 11८७॥ सम्यक्त्वसे संयुक्त प्राणी बारह मिथ्यावासोंमें नहीं उत्पन्न होता है। वे बारह मिथ्यावास इस प्रकार हैं-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय, कुभोगभूमि और म्लेच्छखण्ड। तथा तियंचपंचेन्द्रियोंमें, नारकियोंमें और नपुंसकोंमें उत्पन्न नहीं होता है। और वह सम्यक्त्वी जीव स्त्रीपर्यायमें, खोटे कुलमें,अल्प आयुवालोंमें,
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