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________________ १५८ श्रावकाचार-संग्रह शास्त्रव्याख्याविद्यानवधविज्ञानदानपूजाभिः । ऐहिकफलानपेक्षाः शासनसद्भावनं कुर्यात् ॥६७ अमिलाया महादेव्याः पूतिकस्य महीभुजः । स्यन्दनं भ्रामयामास मुनिर्वज्रकुमारकः ॥६८ एतैरष्टभिरङ्गश्च सम्यक्त्वं यस्य मानसे । दृढं तस्य हि तज्ज्ञेयमन्यथा तस्य हानिता ॥६९ संवेगो निर्वेदो निन्दा गर्दा तथोपशमो भक्तिः । वात्सल्यं त्वनुकम्पा चाष्टगुणाः सन्ति सम्यक्त्वे ॥७० देवे दोषोज्झिते धर्मे तथ्ये शास्त्रे हिते गुरौ । निर्ग्रन्थे योऽनुरागः स्यात्संवेगः स निगद्यते ॥७१ भोगे भुजङ्गभोगाभे संसारे दुःखदे सताम् । यद्वैराग्यं सरोगेऽङ्गे निर्वेदोऽसौ प्रचक्ष्यते ॥७२ पुत्रमित्रकलबादिहेतोः कायें विनिर्मिते । दुष्टे योऽनुशयः पुंसो निन्दा सोक्ता विचक्षणैः ॥७३ रागद्वेषादिभिर्जाते दूषणे सद्गुरोः पुरः । भक्त्याऽऽलोचना गर्दा साहद्भिः प्रतिपाद्यते ।।७४ रागद्वषादयो दोषा यस्य चित्ते न कुर्वते । स्थिरत्वं सोऽत्र शान्तात्मा भवेद् भव्यमतल्लिका ॥७५ सेवाहेवाकिनाकोशपूजाहर्हिति सद्गुरौ । विनयाद्या सपर्याऽऽद्यैः सा भक्तिर्व्यक्तमिष्यते ॥७६ साधवगें निसर्गोवद्रोगपीडितविग्रहे । व्यावृतिर्भेषजाद्यैर्या वात्सल्यं तद्धि कथ्यते ॥७७ प्राणिषु भ्राम्यमाणेषु संसारे दुःखसागरे । चित्तात्वं दयालोर्यत्तत्कारुण्यमुदीरितम् ॥७८ एतैरष्टगुणैर्युक्तं सम्यक्त्वं यस्य मानसे । तस्यानिशं गृहे वासं विधत्ते कमलाऽमला ॥७९ जिनपूजा और विद्याके अतिशयसे जिनधर्मको प्रभावना करनी चाहिये ॥६६॥ शास्त्रका व्याख्यान, निर्दोष विद्या और विज्ञान तथा दान और पूजाके द्वारा इस लोकसम्बन्धी किसी भी प्रकारके फल की अपेक्षा न रख कर जैन शासनको प्रभावना करनी चाहिये ।।६७।। देखो-वज्रकुमार मुनिने जैन धर्मको प्रभावनाके लिए पूतिक नामके राजाकी महारानी ऊर्मिला महादेवीका रथ चलवाया ॥६८॥ इन आठ अंगोंसे जिसके मनमें सम्यक्त्व दृढ़ होता है, उसके ही सम्यग्दर्शन जानना चाहिये । यदि अंगोंका परिपालन नहीं है, तो सम्यग्दर्शनकी हानि समझना चाहिये ॥६९।। आत्मा में सम्यग्दर्शनके प्रकट होनेपर संवेग, निवंग, निन्दा, गर्हा, उपशमभाव, भक्ति, वात्सल्य और अनुकम्पा ये आठ गुण उत्पन्न होते हैं ॥७०॥ दोष-रहित वीतराग देवमें, अहिंसामयी सत्यार्थ धर्ममें, हितकारी शास्त्रमें और निर्ग्रन्थ गुरुमें जो अनुराग होता है, वह संवेग कहलाता है ।।७१।। भुजंग (सर्प) के मुखके समान महाभयंकर इन्द्रियोंके भोगोंमें, दुखदायी संसारमें, तथा रोगोंसे भरे हुए इस शरीरमें सज्जनोंको जो वैराग्य होता है, वह निर्वेद कहा जाता है ॥७२॥ पुत्र मित्र स्त्री आदिके निमित्तसे किसी दुष्ट कार्यके हो जानेपर-बुरा कार्य करनेपर-मनुष्यके हृदयमें जो पश्चात्ताप होता है, उसे ज्ञानीजन निन्दा कहते हैं ॥७३।। राग-द्वेषादिसे किसी प्रकारके दोष हो जानेपर सद्-गुरुके आगे भक्तिपूर्वक अपनी आलोचना करनेको अरहन्तदेवने गर्दा कहा है ॥७॥ जिसके चित्तमें राग-द्वेष, क्रोध आदि दोष स्थिरता नहीं करते हैं, वह भव्यशिरोमणि पुरुष उपशमभावका धारक शान्तात्मा कहा जाता है ।।७५।। सेवा करना ही है क्रीड़ा-कुतूहल जिसके, ऐसे स्वर्गाधोश इन्द्रोंके द्वारा पंचकल्याणरूप पूजाके योग्य अर्हन्तदेवमें और सद्-गुरुमें विनयके साथ जो पूजा आदि की जाती है, उसे आदि पुरुषोंने उत्तम भक्ति कहा है ॥७६।। कर्मोदयसे अपने आप उत्पन्न हुए रोगोंसे जिनका शरीर पीड़ित हो रहा है, ऐसे साधुवर्गमें औषधि आदिसे जो रोगको निवृत्ति की जाती है, वह वात्सल्य कहलाता है ॥७७॥ दुःखरूप संसार-सागरमें निरन्तर परिभ्रमण करनेवाले प्राणियोंके ऊपर दयालु पुरुषका जो चित्त दयासे आर्द्र (द्रवित) हो जाता है, वह कारुण्य या अनुकम्पा भाव कहा गया है ।।७८।। जिस पुरुषके हृदयमें इन उपर्युक्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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