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________________ उमास्वामि-श्रावकाचार धर्मकर्मरतेर्दैवात्प्राप्नदोषस्य जन्मिनः । वाच्यतागोपनं प्राहुरार्याः सदुपगृहनम् ॥५४ धर्मोऽभिवर्धनीयोऽयं भावैस्तैर्दिवादिभिः । परं सङ्गोपनीयं च दूषणं स्वहितैषिणा ॥५५ निगहति तं दोषान् परस्याप्यात्मनो गुणान् । प्रकाशयति न कापि स स्यात्सदुपगहकः ॥५६ मायासंयमिनः सूर्यनाम्नो रत्नापहारिणः । श्रेष्ठो जिनेन्द्रभक्तोऽसौ कृतवानुपगृहनम् ॥५७ दर्शनज्ञानचारित्रत्रयाद् भ्रष्टस्य जन्मिनः । प्रत्यवस्थापन तज्ज्ञाः स्थितीकरणमूचिरे ॥५८ कामक्रोधमदोन्मादप्रमादेषु विहारिणः । आत्मनोऽन्यस्य वा कार्य सुस्थितीकरणं बुधैः ॥५९ बालाशक्तजनानां च व्रताच्च्युतिमलोकयन् । लोकयन्नास्थितेश्छेदाद् भवेद्धर्मापराषवान् ॥६० ज्येष्ठां गर्भवतीमार्यामाशु राज्ञो तु चेलना । अतिष्ठिपत्पुनः शुद्ध व्रते सम्यक्त्वलोचना ॥६१ सुदतीसङ्गमासक्तं पुष्पडालं तपोधनम् । वारिषेणः कृतत्राणः स्थापयामास संयमी ॥६२ साधूनां साधुवृत्तीनां सागाराणां सर्मिणाम् । प्रतिपत्तियथायोग्यं तज्जर्वात्सल्यमुच्यते ॥६३ आदरो व्यावृत्तिभक्तिश्चाटूक्तिः सत्कृतिस्तथा। साधष्पकृतिः श्रेयोऽभिर्वात्सल्यमुच्यते ॥६४ महापद्मसुतो विष्णुमुनीनां हास्तिने पुरे । बलिद्विजकृतं विघ्नं शमयामास वत्सलम् ॥६५ आत्मा प्रभावनोयो रत्नत्रयतेजसा सततमेव । दानतपोजिनपूजाविधातिशयैश्च जिनधर्मः ॥६६ विष्णुके, वृषभारूढ महेशके, तथा सिंहासनपर विराजमान जिनराजके मायारूपोंके स्वयं आनेपर भी रेवती रानी मूढतावाली नहीं हुई ॥५३॥ धर्म कार्यमें निरत पुरुषके दैवयोगसे किसी दोषके प्राप्त हो जाने पर उसकी निन्दा नहीं करके उसके दोषके ढांकनेको आर्य पुरुष उपगृहन कहते हैं ॥५४॥ आत्महितैषी मनुष्यको उन मादंव-आर्जव आदि भावोंके द्वारा यह धर्म बढ़ाते रहना चाहिये। तथा दूसरोंके दूषण ढकना चाहिये ॥५५।। जो पुरुष दूसरेके दोषोंको तुरन्त ढकता है उन्हें कहींपर भी प्रकाशित नहीं करता है, तथा अपने गुणोंको भी कभी कहीं प्रकट नहीं करता है, वह पुरुष उपगूहन अंगका धारक है ॥५६॥ मायाचारसे. संयम धारण करके रत्नकी प्रतिमाको चुरानेवाले सूर्य नामके क्षुल्लकका उस जिनेन्द्र भक्त सेठने उपगूहन किया ॥५७॥ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रय धर्मसे भ्रष्ट होनेवाले मनुष्यको पुनः धर्ममें अवस्थित करना, इसे ज्ञानी जनोंने स्थितीकरण अंग कहा है ।।५८॥ काम क्रोध मद उन्माद और प्रमादमें विहार करनेवाले अपने आत्माका, तथा अन्य पुरुषका ज्ञानियोंको स्थितीकरण करना चाहिये ॥५९॥ बाल (अज्ञानी) और अशक्त (असमर्थ) जनोंका व्रतसे पतन देखता हुआ भी उसका स्थितीकरण न करे और उसके धर्मसे च्युत होनेको अनदेखा-सा करे, तो वह पुरुष धर्मका अपराधी होता है ॥६०॥ गर्भवतो ज्येष्ठा आर्याको सम्यक्त्वरूप नेत्रकी धारक रानी चेलनाने पुनः शुद्ध व्रतमें स्थापित किया ॥६१।। तथा सुदतो नामक अपनी कानी स्त्रीके संगम पानेको आसक्त पुष्पडाल साधुको संयमी वारिषेणने उसकी रक्षा करते हुए उसे संयममें स्थापित किया ॥२॥ साधुओंकी, साधुओं जैसी वृत्तिवाले श्रावकोंको और साधर्मी भाइयोंकी यथायोग्य प्रतिपत्ति करने को पूजा भक्ति, आदर सम्मान आदि करनेको ज्ञानियोंने वात्सल्य कहा है ॥६३।। आदर, वैयावृत्य, प्रियवचन बोलना, सत्कार करना और साधुओंका उपकार करना इत्यादि कार्योंको कल्याणार्थी पुरुष वात्सल्य कहते हैं ।।६४॥ महापद्म राजाके पुत्र विष्णुकुमार मुनिने हस्तिनापुरमें बलि ब्राह्मण द्वारा किये गये उपसर्गरूप विघ्नको शान्त किया, यह वात्सल्य गुण है ॥६५॥ रत्नत्रयरूप धर्मके तेजसे अपनी आत्माको सदा ही प्रभावित करते रहना चाहिये। तथा दान तप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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