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________________ १५६ श्रावकाचार-संग्रह एकरात्रं त्रिरात्रं वा कृत्वा स्नात्वा चतुर्थके । दिने शुद्धधन्त्यसन्देहमृतौ व्रतगतः स्त्रियः ॥४७ विकारवति नाग्न्यं न वस्त्रस्योद्वेष्टनं किल । अविकारान्विते पुंसि प्रशंसास्पदं हि तत् ॥४८ न श्वभ्रायास्थितेर्नापि भोजनान्न विमुक्तये । किन्तु संयमिनामेषा प्रतिज्ञा ज्ञानचक्षुषाम् ॥४९ अदैन्यवैराग्यकृते कृतोऽयं केशलोचकः । यतीश्वराणां वीरत्वं व्रतं नैर्मल्यदीपकः ||५० बालवृद्धगदग्लानान्मुनीनुद्दायनः स्वयम् । भजन्निविचिकित्सात्मा स्तुति प्राप पुरन्दरात् ॥५१ देवाभासे तथा शास्त्राभासेऽप्याश्चर्यकारिणि । यन्न सङ्गमनं त्रेधा सा मतामूढदृष्टिता ॥५२ सुहंसतार्क्ष्योक्षासहपीठाधिपतिषु स्वयम् । आगतेष्वपि नैवाभूद् रेवती मूढतावती ॥५३ कमण्डलुके जलको मस्तकपर छोड़कर उसकी दण्डाकार धारासे शरीरको भली-भाँति पोंछकर और उपवास रखकर मन्त्रका जाप करें (ऐसा जिनशासनका विधान है और इस प्रकार वे शुद्ध हो जाते हैं | ) ||४६ || तथा व्रत धारण करनेवाली आर्यिका आदि स्त्रियाँ ऋतुकालमें एक रात्रि, तीन रात्रि पश्चात् चौथे दिन निःसन्देह शुद्ध हो जाती हैं ॥४७॥ विकारवान् लिंग में नग्नताका विधान नहीं है, इसलिए निश्चयसे उनके वस्त्रका आवरण धारण करना कहा गया है । किन्तु निर्विकार लिंगसे संयुक्त पुरुषमें तो वह नग्नपना प्रशंसाके ही योग्य है ॥४८॥ भावार्थ-स्त्रीका लिंग स्वयं विकार युक्त है और दर्शकके मनमें भी विकार उत्पन्न कर देता है, अतः स्त्रियोंको नग्न रहनेका विधान नहीं है, किन्तु उन्हें साध्वी दशा में भी वस्त्रका आवरण आवश्यक माना गया है। इसी प्रकार जिन मनुष्योंका लिंग विकार युक्त हो, स्थूल एवं मणिभागके चर्मसे रहित हो, अण्डकोष बढ़े हुए हों, तो ऐसे पुरुषको भी नग्न दीक्षाका विधान नहीं है । किन्तु निर्विकारी पुरुषके लिए नग्न रहना दूषक नहीं है । इस प्रकार जो लोग स्नान न करनेसे, तथा नग्न रहनेसे साधुओंकी निन्दा करते हैं और उनसे घृणा करते हैं, उनका परिहार कर अब ग्रन्थकार खड़े होकर भोजन करनेको निन्द्य समझने वाले लोगोंको लक्ष्य कर कहते हैं खड़े होकर भोजन करनेसे न तो मनुष्य नरकमें जाता है और न मुक्ति के लिए ही यह कार्यं है । किन्तु ज्ञान नेत्रवाले संयमी साधुओंकी यह प्रतिज्ञा होती है, कि जब तक शरीरमें खड़े होनेकी सामथ्यं रहेगी, तब तक ही मैं भोजन ग्रहण करूंगा । जिस समय खड़े रहने की सामर्थ्य नहीं रहेगी, उस समय यावज्जीवनके लिए भोजनका त्याग कर दूँगा । इस प्रतिज्ञाके कारण वे खड़े होकर भोजन करते हैं, ' अतः यह कार्य भी निन्दा के योग्य नहीं है || ४९|| जो लोग साधुओंके केशलुच करनेकी निन्दा करते हैं, उनको लक्ष्य करके ग्रन्थकार कहते हैं -- यतीश्वरोंका यह केश लुच करना अदैन्यभाव और वैराग्यभाव प्रकट करनेके लिए है। उनका यह वीरत्वव्रत उनकी निर्मलताका प्रकाशक है ||५०॥ इस प्रकार बाल, वृद्ध, रोगसे पीड़ित मुनियोंकी ग्लानि-रहित होकर स्वयं सेवा – वैयावृत्य करनेवाला निर्विचिकित्साका धारक उद्दायन राजा इन्द्रसे स्तुतिको प्राप्त हुआ || ५१ ॥ आश्चर्यकारी भी मिथ्या देवमें तथा मिथ्या शास्त्र में त्रियोगसे जो संगति या श्रद्धा नहीं करना, सो वह अमूढदृष्टिता मानी गयी है ||५२|| देखो - हंसारूढ ब्रह्माके, गरुडारूढ १. पाणिपात्रं मिलत्येतच्छक्तिश्च स्थितिभोजने । यावत्तावदहं भुजे रहस्याहारमञ्जसा ॥ Jain Education International ( यशस्तिलकचम्पू आ० ५. श्लो १३४ ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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