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भावकाचार-संग्रह
तीर्थकृच्चक्रवर्त्यादिविभूतिं प्राप्य भासुराम् । नरः सम्यक्त्वमाहात्म्यात्प्राप्नोति परमं पदम् ॥९० किमत्र बहुनोक्तेन ये गता यान्ति जन्मिनः । मोक्षं यास्यन्ति तत्सर्वं सम्यक्त्वस्यैव चेष्टितम् ॥११ सप्तव्यसननिर्मुक्ता जिनपूजासमुद्यताः । सम्यग्दर्शन संयुक्तास्ते धन्याः श्रावका मताः ॥९२ यो मानुष्यं समासाद्य दुर्लभं भवकोटिषु । सज्जाति सत्कुलं चाप्य मा भूयाद् दृग्विवर्जितः ॥९३ देवपूजादिषट्कर्मनिरतः कुलसत्तमः । अघषट्कर्मनिर्मुक्तः श्रावकः परमो भवेत् ॥९४ इति प्रथममावर्ण्य दर्शनं जिनपूजनम् । तद्-दृढीकरणार्थं च वक्ष्येऽहं युगले पदे ॥९५ नित्यपूजाविधिः केन प्रकारेण क्रियेत च । बुधैस्तथाहं वक्ष्ये च पूर्वसूत्रानुसारतः ॥९६ स्नानं पूर्वमुखीभूय प्रतीच्यां दन्तधावनम् । उदीच्यां श्वेतवस्त्राणि पूजा पूर्वोत्तरामुखी ॥९७ गृहे प्रविशता वामभागे शल्यविवर्जिते । देवतावसरं कुर्यात्सार्धहस्तोर्ध्व भूमिके ॥ ९८ नीचैर्भूमिस्थितं कुर्याद्देवतावसरं यदि । नीचैर्नोचैस्ततोऽवश्यं सन्तत्यापि समं भवेत् ॥९९ एकादशाङ्गुलं बिम्बं सर्वकामार्थसाधकम् । एतत्प्रमाणमाख्यातमत ऊध्वं न कारयेत् ॥१०० एकाङ्गुलं भवेच्छ्रेष्ठं द्वयङ्गुलं धननाशनम् । श्यङ्गुले जायते वृद्धिः पीडा स्याच्चतुरङ्गुले ॥१०१
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दरिद्रियोंमें, निन्दनीय वंशमें, भवनत्रिकदेवोंमें, उनकी देवियोंमें तथा प्रथम नरकको छोड़कर शेष छह नरकभूमियों में नहीं उत्पन्न होता है | ८८-८९ ॥ किन्तु वह सम्यग्दृष्टि जीव सम्यक्त्वके माहात्म्यसे तीर्थंकर चक्रवर्ती आदिकी भासुरायमान विभूतिको प्राप्त करके अन्त में परमपद निर्वाणको प्राप्त करता है ||१०|| इस विषयमें अधिक कहने से क्या ? अभी तक जितने जीव मोक्ष गये हैं, जा रहे हैं और आगे जावेंगे, वह सब सम्यक्त्वका ही माहात्म्य है ||९१|| जो जीव सातों व्यसनोंसे रहित हैं, जिन-पूजन करनेमें उद्यत हैं, और सम्यग्दर्शनसे संयुक्त हैं, वे श्रावक धन्य माने जाते हैं ॥९२॥ कोटि भवोंमें दुर्लभ ऐसे मनुष्यभवको पाकरके, तथा उत्तम जाति और उत्तम कुल पाकरके भव्य जीवको सम्यग्दर्शनसे रहित नहीं होना चाहिए ||९३|| जो उत्तम कुलोन पुरुष सम्यग्दर्शनको धारण करके देवपूजा आदि षट् आवश्यक कर्मोंमें निरत रहता है, चक्की बुहारी आदि षट् पापकार्योंसे विमुक्त है, वह परम श्रावक कहलाता है ||९४|| इस प्रकार श्रावकके ग्यारह पदोंमेंसे प्रथम दार्शनिक पदका वर्णन करके अब मैं दूसरे श्रावकपदमें उसीके दृढ़ करने के लिए जिनपूजनका वर्णन करूंगा ||९५ ||
ज्ञानो पुरुष नित्य पूजाकी विधि किस प्रकारसे करते हैं, यह, में पूर्वाचार्य रचित सूत्रके अनुसार कहूँगा ||९६ || पूजन करनेके पहले पूर्व दिशाको ओर मुख करके स्नान करे, पश्चिम दिशाकी ओर मुख करके दातुन करे, उत्तर दिशा की ओर मुख करके श्वेत वस्त्र धारण करे और जिनेन्द्रदेवकी पूजा पूर्व या उत्तरकी ओर मुख करके करे ||१७|| भावार्थ - यदि जिनप्रतिमाका मुख पूर्वकी ओर हो तो पूजा उत्तर मुख होकर करे और यदि प्रतिमाका मुख उत्तरकी ओर हो तो पूजा पूर्व मुख होकर करे । अब ग्रन्थकार सर्वप्रथम अपने घर में चैत्यालय बनानेकी विधि कहते हैं— घरमें प्रवेश करते हुए शल्य-रहित वाम भागमें डेढ़ हाथ ऊँची भूमिपर देवताका स्थान बनावे ||१८|| यदि गृहस्थ नीची भूमिपर स्थित देवताका स्थान बनायगा, तो वह अवश्य ही सन्तानके साथ नोचलो नोचलो अवस्थाको प्राप्त होता जायगा ||१९|| घरके चैत्यालय में ग्यारह अंगुल प्रमाणवाला जिनबिम्ब सर्व मनोवांछित अर्थका साधक होता है, अतएव इस प्रमाण से अधिक ऊंचा जिनबिम्ब नहीं बनाना चाहिये || १००|| एक अंगुल प्रमाण जिनबिम्ब श्रेष्ठ होता
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