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________________ अनशनाव मौदर्यवृत्तिपरिसंख्यानर सपरित्यागविविक्तशय्यासनकायक्लेशाः बाह्यं तपः ||६४ खाद्यादिचतुर्द्धाहारसंन्यासोऽनशनं मतम् । केवलं भक्तसलिलमवमोदर्य मुच्यते ॥७६ त्रिचतुःपञ्चषष्ठादिवस्तूनां संख्ययाऽशनम् । सद्मादिसंख्यया यद्वा वृत्तिसंख्या प्रचक्ष्यते ॥७७ मधुरादिरसानां यत्समस्तं व्यस्तमेव वा । परित्यागो यथाशक्ति रसत्यागः स लक्ष्यते ॥७८ एकान्ते विजनस्थाने सरागादिदोषोज्झिते । शय्या यद्वासनं भिन्नं शय्यासनमुदीरितम् ॥७९ लाटीसंहिता समभ्यस्तव्रताः केचिद् व्रतं गृह्णन्ति साहसात् । न गृह्णन्ति व्रतं केचिद् गृहे गच्छन्ति कातराः ॥७३ एवमित्यादि दिग्मा मया प्रोक्तं गृहिव्रतम् । दृगाद्येकादशं यावत् शेषं ज्ञेयं जिनागमात् ॥७४ अस्त्युत्तरगुणं नाम्नां तपो द्वादशधा मतम् । सूचीमागं प्रवक्ष्यामि देशतो व्रतधारिणाम् ॥७५ तत्सूत्रं यथा- 3 s धारण करना चाहते हैं वे उन व्रतोंका अभ्यास करते हैं ॥ ७२ ॥ उक्त वानप्रस्थ आदिमेंसे कितने ही व्रतोंका अभ्यास करके साहसके साथ व्रतोंको ग्रहण करते हैं और कितने ही कायर पुरुष व्रतोंको ग्रहण न करके अपने घरोंको चले जाते हैं ||७३|| इस प्रकार ऊपर लिखे अनुसार दर्शनप्रतिमासे लेकर उद्दिष्टत्यागप्रतिमातक गृहस्थोंकी ग्यारह प्रतिमाओंका स्वरूप मैंने अत्यन्त संक्षेपसे कहा है । इन प्रतिमाओंके स्वरूप कहने में जो कुछ बाकी रह गया है वह अन्य जैनशास्त्रोंसे जान लेना चाहिए ||७४ || एकदेश व्रतोंको धारण करनेवाले इन श्रावकों के (उत्कृष्ट श्रावकोंके ) उत्तरगुण बारह प्रकारके तप कहलाते हैं। आगे में संक्षेपसे नाम मात्र इन बारह प्रकारके तपोंको भी कहता हूँ ॥७५॥ तप दो प्रकार है- एक अन्तरंग तप और दूसरे बाह्य तप । इनमेंसे बाह्य तपके छह भेद हैं जो सूत्रकारने अपने सूत्रमें इस प्रकार बतलाये हैं-अनशन, अवमोदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन और कायक्लेश यह छह प्रकारका बाह्य तप है ||६४ || Jain Education International आगे संक्षेपसे इन्हींका स्वरूप लिखते हैं । अन्न पान लेह्य खाद्य इन चारों प्रकारके आहारका त्याग कर देना अनशन तप कहलाता है । केवल भात और पानी लेना बाकीके समस्त आहारोंका त्याग कर देना अर्थात् घोड़ा भोजन लेना अवमोदर्य तप है ॥ ७६ ॥ | मैं आज केवल दाल भात और पानी ऐसे तीन पदार्थ खाऊँगा बाकी सबका त्याग है अथवा चार या पाँच पदार्थ खाऊँगा या छह खाऊँगा बाकीके नहीं अथवा पाँच घर तक जाऊँगा, पाँच घरमें आहार मिलेगा तो लूँगा नहीं तो नहीं । इस प्रकार खाने योग्य पदार्थोंका नियम कर अथवा जाने योग्य घरोंका नियम कर आहारके लिए जाना अथवा आहार के लिए इस प्रकारका नियम कर लेना वृत्तिपरिसंख्या नामका तप कहलाता है ॥७७॥ मीठा, खट्टा, चरपरा, कड़वा, कषायला आदि रसोंका अथवा मीठा, दूध, दही, घी, तेल और फलादिक सचित्त पदार्थ इन छहों रसोंका पूर्ण रूपसे त्याग कर देना अथवा एक दो आदि अलग-अलग रूपसे रसोंका त्याग करना, जैसी अपनी शक्ति हो उसीके अनुसार त्याग करना रसपरित्याग नामका तप है । यदि अपनी शक्ति हो तो समस्त रसोंका त्याग कर देना चाहिए। यदि ऐसी शक्ति न हो तो फिर जितनी शक्ति हो उसके अनुसार एक दो चार आदि रसोंका त्याग कर देना चाहिए। इस प्रकारके त्यागको रसपरित्याग तप कहते हैं ||७८ || जहाँपर मनुष्यों का निवास न हो तथा राग-द्वेष उत्पन्न होनेके कोई कारण न हों ऐसे निर्दोष एकान्त स्थान में सोने और बेठनेका स्थान बनाना विविक्तशय्यासन नामका तप कहलाता For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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