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________________ बायकापार संग्रह बातापनादियोगेन वीर्यचर्यासनेन वा । वपुषः क्लेशकरणं कायक्लेशः प्रकीर्तितः ॥४० षोढा बाह्यं तपः प्रोक्तमेवमित्यादिलक्षणः । अधुना लक्ष्यतेऽस्माभिःषोढा वाभ्यन्तरं तपः ॥८१ तत्सूत्र पवा प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्त्यस्वाध्यायव्युत्सर्गध्यानान्युत्तरम् ॥६५ प्रायो दोषेऽप्यतीचारे गुरौ सम्यग्निवेदिते । उद्दिष्टं तेन कर्तव्यं प्रायश्चित्ततपः स्मृतम् ॥८२ गुर्वादीनां यथाप्येषामभ्युत्थानं च गौरवम् । क्रियते चात्मसामर्थ्याद्विनयाख्यं तपः स्मृतम् ॥८३ तपोधनानां देवावा ग्लानित्वं समुपेयुषाम् । यथाशक्ति प्रतीकारो वैयावृत्यः स उच्यते ॥८४ नैरन्तर्येण यः पाठः क्रियते सूरिसन्निधौ । यद्वा सामायिकीपाठः स्वाध्यायः स स्मृतो बुधः ॥८५ शरोराविममत्वस्य त्यागो यो ज्ञानदृष्टिभिः । तप.संज्ञाः सुविख्यातो कायोत्सर्गो महर्षिभिः ॥८६ कुत्स्नचिन्तानिरोधेन पुंसः शुद्धस्य चिन्तनम् । एकाग्रलक्षणं ध्यानं यदुक्तं परमं तपः ॥८७ है॥७९॥ आतापन आदि योग धारण कर अथवा वीरचर्या आसन धारण कर शरीरको क्लेश पहुंचाना कायक्लेश नामका तप कहलाता है। नग्न अवस्था धारण कर एक स्थानपर खड़े होकर ध्यान धारण करना आतापन योग है तथा भ्रामरी वृत्तिसे भोजन करना, ग्रीष्म ऋतुमें पर्वतपर खड़े होना, वर्षामें वृक्षके नीचे रहना और शीत ऋतुमें नदीके किनारे या चौहटेमें रहना आदि वीरचर्या है। इनके द्वारा शरीरको क्लेश पहुंचाना कायक्लेश नामका तप कहलाता है ।।८०॥ इस प्रकार अत्यन्त संक्षेप रीतिसे सबका लक्षण कहकर छहों प्रकारके बाह्य तपका निरूपण किया। अब आगे छहों प्रकारके अन्तरंग तपका लक्षण कहते हैं ।।८१॥ उन अन्तरंग तपोंको कहनेवाला सूत्र यह है-प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान यह छह प्रकारका अतरंग तप है ॥६५॥ आगे इनका स्वरूप संक्षेपसे कहते हैं। किसो व्रतमें या किसी भी क्रिया में किसी प्रकारका अतिचार या दोष लग जानेपर उसको विना किसी छल कपटके अच्छी तरह गुरुसे निवेदन करना बऔर उसके बदले गुरु महाराज जो कुछ आज्ञा दें, जो दण्ड दें उसे मन वचन कायसे पालन करना प्रायश्चित्त नामका तप कहलाता है ।।८२।। आचार्य उपाध्याय आदि गुरुओंका अपनी सामर्थ्यके अनुसार आदर-सत्कार करना, उनके सामने खड़े होना, पीछे-पीछे चलना तथा अपनी सामर्थ्यके अनुसार उनका महत्त्व प्रगट करना आदि विनय नामका तप कहलाता है ।।८३।। यदि दैवयोगसे किसी मुनिके किसी प्रकारका रोग हो गया हो अथवा और किसी प्रकारकी शरीरमें बाधा हो गयी हो तो अपनी शक्तिके अनुसार उसको दूर करना, उस मुनिराजकी सेवा करना, पैर दाबना तथा जिस प्रकार वह व्याधि दूर हो सके उसी प्रकार निर्दोष यत्ल करना वैयावृत्य नामका तप कहलाता है ।।८४|| आचार्य महाराजके समीप बैठकर निरन्तर शास्त्रोंका पाठ करनेको, अथवा सामायिकके पाठ करनेको विद्वान् लोग स्वाध्याय नामका तप कहते हैं ।।८५।। ज्ञानरूपी नेत्रोंको धारण करनेवाले महा तपस्वी लोग शरीरादिकसे ममत्वका सर्वथा त्याग कर देनेको प्रसिद्ध कायोत्सर्ग नामका तप कहते हैं ॥८६।। योगी लोग जो अन्य समस्त चिन्ताओंको रोककर अपने मनकी एकाग्रतासे केवल शुद्ध आत्माका चिन्तवन करते हैं उसको ध्यान नामका परम तपश्चरण कहते हैं ॥८७॥ इस प्रकार हमने कृपापूर्वक एकदेश व्रतोंको धारण करनेवाले श्रावकोंके लिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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