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________________ १४८ श्रावकाचार-संग्रह भिक्षापाशं च गृह्णीयात्कांस्यं यद्वाऽप्ययोमयम् । एषणादोषनिर्मुक्तं भिक्षाभोजनमेकशः ॥६४ क्षोरं श्मश्रुशिरोलोम्नां शेषं पूर्ववदाचरेत् । अतीचारे समुत्पन्ने प्रायश्चित्तं समाचरेत् ।।६५ यथा निर्दिष्टकाले स भोजनार्थं च पर्यटेत् । पात्रे भिक्षां समादाय पञ्चागारादिहालिवत् ॥६६ तत्राप्यन्यतमे गेहे दृष्ट्वा प्रासुकमम्बुकम् । क्षणं चातिथिभागाय सम्प्रेक्ष्याध्वं च भोजयेत् ॥६७ देवात्पात्रं समासाद्य दद्याद्दानं गृहस्थवत् । तच्छेषं यत्स्वयं भुङ्क्ते नोचेत्कुर्यादुपोषितम् ।।६८ किश्च गन्धादिद्रव्याणामुपलब्धौ समिभिः । अहंद्विम्बादिसाधूनां पूजा कार्या मुदात्मना ।।६९ किश्चात्र साधकाः केचित्केचिद्गूढाह्वयाः पुनः । वाणप्रस्थाख्यकाः केचित्सर्वे तद्वेषधारिणः ॥७० क्षुल्लकोवक्रिया तेषां नात्युनं नातीव मृदुः । मध्यतिव्रतं तद्वत्पञ्चगुर्वात्मसाक्षिकम् ॥७१ अस्ति कश्चि द्विशेषोऽत्र साधकादिषु कारणात् । अगृहीतव्रताः कुर्युव्रताभ्यासं वताशया ॥७२ पात्र रखता है तथा शास्त्रोंमें जो भोजनके दोष बतलाये हैं उन सब दोषोंसे रहित एक बार भिक्षा भोजन करता है ॥६४॥ दाढ़ी मूंछ और मस्तकके बालोंको बनवा लेता है तथा बाकीकी समस्त क्रिया पहले कही हुई प्रतिमाओंके अनुसार करता है अर्थात् दश प्रतिमाओंमें कही हुई समस्त क्रियाओंका पालन करता है। यदि उसके किसी व्रतमें किसी प्रकारका दोष या अतिचार लग जाता है तो वह उसका प्रायश्चित्त लेता है ॥६५॥ भोजनके समयपर अर्थात् दोपहरके पहले वह भोजनके लिये नगरमें जाता है तथा भ्रमरके समान विना किसीको किसी प्रकारका दुख पहुंचाये अपने पात्रमें पांच घरोंसे आहार लेता है ।।६६।। वह क्षुल्लक श्रावक उन पांच घरोंमेसे ही जिस घरमें प्रासुक जल दृष्टिगोचर हो जाता है उसी घरमें भोजनके लिये ठहर जाता है तथा थोड़ी देर तक वह किसी भी मुनिराजको आहार दान देनेके लिये प्रतीक्षा करता है। यदि आहार दान देनेके लिये किसी मुनिराजका समागम नहीं मिला तो फिर वह भोजन कर लेता है ॥६७। यदि दैवयोगसे आहार दान देनेके लिये किसी मुनिराजका समागम मिल जाय, अथवा अन्य किसी पात्रका समागम मिल जाय तो वह क्षुल्लक श्रावक गृहस्थके ही समान अपना लाया हुआ भोजन उन मुनिराजको दान देता है। दान देकर फिर अपने पात्रमें जो कुछ बचा रहता है उसको वह स्वयं भोजन कर लेता है। यदि अपने पात्रमें कुछ न बचे तो उस दिन वह उपवास करता है ॥६८॥ तथा यदि उस क्षुल्लक श्रावकको किसी साधर्मी पुरुषसे जल चन्दन अक्षत आदि पूजा करनेकी सामग्री मिल जाय तो प्रसन्नचित्त होकर भगवान् अरहन्तदेवकी पूजा कर लेनी चाहिये अथवा भगवान् सिद्ध परमेष्ठी या साधु परमेष्ठीकी पूजा कर लेनी चाहिये ॥६९।। इस प्रकार क्षुल्लक और ऐलक दोनों प्रकारके उत्कृष्ट श्रावकोंकी क्रियाओंका निरूपण किया। जिस प्रकार उत्कृष्ट श्रावकके क्षुल्लक और ऐलक ये दो भेद हैं उसी प्रकार क्षुल्लक श्रावकोंके भी कितने ही भेद हैं। कोई साधक क्षुल्लक हैं, कोई गूढ क्षुल्लक होते हैं और कोई वानप्रस्थ क्षुल्लक होते हैं। ये तीनों प्रकारके क्षुल्लक क्षुल्लकके समान वेष धारण करते हैं ।।७०॥ ये तीनों प्रकारके क्षुल्लक क्षुल्लकोंकी ही क्रियाओंको पालन करते हैं। ये तीनों प्रकारके क्षुल्लक न तो अत्यन्त कठिन व्रतोंका पालन करते हैं और न अत्यन्त सरल व्रतोंका पालन करते हैं किन्तु मध्यम स्थितिके व्रतोंका पालन करते हैं तथा पंच परमेष्ठीकी साक्षी पूर्वक व्रतोंको ग्रहण करते हैं ॥७१।। क्षुल्लकोंके जो साधक गूढ और वानप्रस्थ भेद बतलाये हैं उनमें कुछ विशेष भेद नहीं है किन्तु थोड़ा-सा ही भेद है। इनमेंसे जिन्होंने क्षुल्लकके व्रत धारण नहीं किये हैं, किन्तु क्षुल्लकके व्रत . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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