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________________ घाटीसंहिता उक्तंचएयारम्मिट्ठाणे उक्किट्ठो सावओ हवे दुविहो । वच्छेयधरो पढमो कोवीणपरिग्गहो बिदिओ ॥६३ तत्रैलकः स गृह्णाति वस्त्रं कोपोनमात्रकम् । लोचं स्मश्रुशिरोलोम्नां पिच्छिकां च कमण्डलुम् ॥५६ पुस्तकाधुपतिश्चैव सर्वसाधारणं यथा । सूक्ष्मं चापि न गृह्णीयावीषत्सावद्यकारणम् ॥५७ कोपीनोपधिमात्रत्वाद् विना वाचंयमिक्रिया। विद्यते चलकस्यास्य दुर्द्धरं व्रतधारणम् ॥५८ तिष्ठेच्चैत्यालये सङ्घ वने वा मुनिसन्निधौ । निरवद्ये यथास्थाने शुद्ध शून्यमठादिषु ॥५९ पूर्वोदितक्रमेणैव कृतकर्मावधावनात् । ईषन्मध्याह्नकाले वै भोजनार्थमटेत्पुरे ॥६० ईर्यासमितिसंशुद्धः पर्यटेद् गृहसंख्यया । द्वाभ्यां पात्रस्थानीयाम्यां हस्ताभ्यां परमश्नुयात् ॥६१ दद्याद्धर्मोपदेशं च निाजं मुक्तिसाधनम् । तपो द्वादशधा कुर्यात्प्रायश्चित्तादि वाचरेत् ॥६२ क्षुल्लकः कोमलाचारः शिक्षासूत्राङ्कितो भवेत् । एकवस्त्रां सकोपोनं वस्त्रपिच्छकमण्डलुम् ॥६३ कहा भी है-यारहवीं प्रतिमाको धारण करनेवाला उत्कृष्ट श्रावक कहलाता है तथा वह दो प्रकारका होता है। एक तो खण्ड वस्त्रको धारण करनेवाला क्षुल्लक और दूसरा कौपीनमात्र परिग्रहको धारण करनेवाला ऐलक । भावार्थ-क्षुल्लक श्रावक एक वस्त्र धारण करता है और कोपीन धारण करता है तथा ऐलक कोई वस्त्र नहीं रखता केवल एक कौपीन रखता है॥६३॥ इन दोनों प्रकारके उत्कृष्ट श्रावकोंमेंसे जो ऐलक है वह केवल कौपीनमात्र वस्त्रको धारण करता है। कोपीनके सिवाय अन्य समस्त परिग्रहका-समस्त वस्त्रोंका त्याग कर देता है तथा दाढ़ी मूंछ और मस्तकके बालोंका लोंच करता है और पोछी कमण्डलु धारण करता है ॥५६॥ इसके सिवाय स्वाध्यायके लिये पुस्तक आदि सबके काममें आनेवाले धर्मोपकरणोंको भी धारण करता है। परन्तु जो पदार्थ थोड़ी-सी भी हिंसाके कारण हैं या अन्य किसी पापके कारण हैं ऐसे पदार्थोंको वह लेश मात्र भी अपने पास नहीं रखता है ।।५७॥ यह ऐलक श्रावक एक कौपीनमात्र परिग्रहको तो रखता है, इस कोपीनमात्र परिग्रहके सिवाय उसको समस्त क्रियाएँ मुनियोंके समान होती हैं तथा मुनियोंके समान ही वह अत्यन्त कठिन-कठिन व्रतोंको पालन करता है ।।५८॥ यह ऐलक श्रावक या तो किसी चैत्यालयमें रहता है या मुनियोंके संघमें रहता है अथवा किसी मुनिराजके समीप वनमें रहता है अथवा किसी भी सूने मठमें या अन्य किसी भी निर्दोष और शुद्ध स्थान में रहता है ॥५९|| यह ऐलक श्रावक पहले कहे हए क्रमके अनुसार समस्त क्रियाएं करता है तथा दोपहरसे कछ समय पहले सावधान होकर आहारसे लिये नगर में जाता है ॥६॥ आहारको जाते समय भी ईर्यापथ शद्धिसे जाता है तथा घरोंकी संख्याका नियम लेकर भी जाता है। तथा वहाँपर जाकर पात्रोंके समान केवल अपने दोनों हाथोंसे ही आहार लेता है ।।६।। यह ऐलक श्रावक विना किसी छल-कपटके मोक्षका कारण ऐसा धर्मोपदेश देता है तथा बारह प्रकारका तपश्चरण पालन करता है और किसी व्रतमें किसी प्रकारका दोष लग जानेपर प्रायश्चित्त ग्रहण करता है ॥६२॥ इस ग्यारहवीं प्रतिमाको धारण करनेवाले श्रावकका दूसरा भेद क्षुल्लक है। यह क्षुल्लक श्रावक ऐलककी अपेक्षा कुछ सरल चारित्र पालन करता है, चोटी और यज्ञोपवीत धारण करता है, एक वस्त्र धारण करता है, कौपीन धारण करता है, वस्त्रकी पीछी रखता है और कमण्डलु रखता है ॥६३।। यह क्षुल्लक भिक्षाके लिये एक कांसेका अथवा लोहेका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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