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________________ १४६ श्रावकाचार-संग्रह इदमिदं कुरु मैवेदमित्यादेशं न यच्छति । मुनिवत्प्रासुकं शुद्धं यावदनादि भोजयेत् ॥४७ गृहे तिष्ठेद व्रतस्थोऽपि सोऽयमर्थादपि स्फुटम् । शिरःक्षौरादि कुर्याद्वा न कुर्याद्वा यथामतिः ॥४८ अद्य यावद्यथालिङ्गो नापि वेषधरो मनाक् । शिक्षासूत्रादि दध्याद्वा न दध्याद्वा यथेच्छया ॥४९ तिष्ठेद्देवालये यद्वा गेहे सावधवजिते । स्वसम्बन्धिगृहे भुङ्क्ते यद्वाहूतोऽन्यसद्मनि ॥५० एवमित्यादिदिग्मात्रं व्याख्यातं दशमव्रतम् । पुनरुक्तभयादत्र नोक्तमुक्तं पुनः पुनः ॥५१ व्रतं चैकादशस्थानं नाम्नानुद्दिष्टभोजनम् । अर्थादीषन्मुनिस्तद्वानिर्जराधिपतिः पुनः ॥५२ समुद्दिश्य कृतं यावदन्नपानौषधादि यत् । जानन्नेवं न गृह्णीयान्ननमेकादशवती ॥५३ सर्वतोऽस्य गृहत्यागो विद्यते सन्मुनेरिव । तिष्ठेद्देवालये यद्वा वने च मुनिसन्निधौ ।।५४ उत्कृष्टः श्रावको द्वेधा क्षुल्लकश्चैलकस्तथा । एकादशवतस्थौ द्वौ स्तो द्वौ निर्जरको क्रमात् ।।५५ कर लेता है। वह कहकर कुछ नहीं बनवाता। इस प्रकार जो श्रावक अपनी इच्छाको रोकनेरूप तपश्चरण करता है उसके कर्मोका संवर अवश्य होता है ॥४६॥ __इस दशवी प्रतिमाको धारण करनेवाला श्रावक 'ऐसा करो ऐसा करो' 'ऐसा मत करो, ऐसा भी मत करो' इस प्रकारकी आज्ञा किसीको नहीं देता। उसे जो कुछ बना बनाया शुद्ध प्रासुक भोजन मिल जाता है उसे ही वह मुनिके समान भोजन कर लेता है ॥४७।। इस प्रतिमाको धारण करनेवाला श्रावक व्रती होनेपर भी घरमें रहता है तथा अपने मस्तकके बाल बनवा लेता है अथवा नहीं भी बनवाता । बाल वनवाने अथवा न बनवानेमें जैसी उसकी इच्छा होती है वैसा ही करता है ॥४८॥ इस दशवी प्रतिमाको धारण करनेवाला श्रावक जबतक मुनिव्रत धारण नहीं करता तबतक कोई विशेष वेष धारण नहीं करता। जैसा है वैसा ही बना रहता है । चोटी और यज्ञोपवीत धारण करता है अथवा नहीं भी करता ॥४९॥ इस दशवी प्रतिमाको धारण करनेवाला श्रावक किसो देवालय (जिनालयमें या चैत्यालयमें) रहता है अथवा किसी निर्दोष या पापरहित मकानमें रहता है तथा अपने सम्बन्धियोंके घर कुटुम्बियोंके घर भोजन करता है अथवा बुलानेपर किसी अन्य साधमींके घर भोजन कर लेता है ॥५०॥ इस प्रकार अत्यन्त संक्षेपसे दशवी प्रतिमाका स्वरूप कहा। पुनरुक्त दोषके भयसे जो ऊपरकी प्रतिमाओंमें कहा हुआ विषय है वह बार-बार नहीं कहा है ॥५१॥ इस प्रकार दशवी प्रतिमाका स्वरूप कहा। अब आगे ग्यारहवीं प्रतिमाका नाम उद्दिष्टत्यागप्रतिमा है अथवा इस प्रतिमाको पालन करनेवाला अनुद्दिष्ट भोजन करनेवाला है इसलिए अनुद्दिष्टभोजन भी इस प्रतिमाका नाम है। इस प्रतिमाको पालन करनेवाला उत्कृष्ट श्रावक ईषत् मुनि अर्थात् मुनिका छोटा भाई गिना जाता है और कर्म निर्जराका स्वामी होता है ॥५२।। इस ग्यारहवीं प्रतिमाको धारण करनेवाला श्रावक जो कुछ अन्नपान औषधि आदि उसके लिए बनाया गया होगा उसको जानता हुआ वह कभी ग्रहण नहीं करता है ॥५३॥ इस ग्यारहवीं प्रतिमाको पालन करनेवाला श्रावक मुनिके समान ही पूर्णरूपसे घरका त्याग कर देता है। वह उत्कृष्ट श्रावक घरका सर्वथा त्याग कर या तो देवालयमें रहता है अथवा किसी वनमें मुनियोंके संघमें रहता है ॥५४॥ इस ग्यारहवीं प्रतिमाको पालन करनेवाला श्रावक उत्कृष्ट श्रावक कहलाता है तथा वह उत्कृष्ट श्रावक दो प्रकारका होता है-एक क्षुल्लक और दूसरा ऐलक । इन दोनोंके कर्मोको निर्जरा उत्तरोत्तर अधिक-अधिक होती रहती है। भावार्थ-क्षुल्लकके जितने कर्मोकी निर्जरा होती है उससे अधिक ऐलकके कर्मोंकी निर्जरा होती है ॥५५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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