SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 177
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रावकाचार-संग्रह हेतुस्तत्रास्ति विख्यातः प्रत्याख्यानावृतेयंथा। विपाकात्कर्मण. सोऽपि नेतुं नाहंति तत्पदम् ॥२७ उदयात्कर्मणो नाग्न्यं कर्तुनालमयं जनः । क्षुत्पिपासादि दुःखं च सोढुं न क्षमते यतः ॥२८ ततोऽशक्यः गृहत्यागः समन्येवात्र तिष्ठते । वैराग्यस्य परां काष्ठामधिरूढः स शुद्धधीः ॥२९ इतः प्रभृति सर्वेऽपि यावदेकादशस्थितिः । इयद्वस्त्रावृताश्चापि विज्ञेया मुनिसन्निभाः ॥३० अष्टमी प्रतिमा साऽथ प्रोवाच वदतां वरः। सर्वतो देशतश्चापि यत्रारम्भस्य वर्जनम् ॥३१ इतः पूर्वमतीचारो विद्यते बधकर्मणः । सचित्तस्पर्शनत्वाद्वा स्वहस्तेनाम्भसां यथा ॥३२ इतः प्रभृति यद् द्रव्यं सचित्तं सलिलादिवत् । न स्पर्शति स्वहस्तेन बह्वाऽऽरम्भस्य का कथा ॥३३ तिष्ठेत्स्वबन्धुवर्गाणां मध्येऽप्यन्यतमाश्रितः । सिद्धं भक्त्यादि भुञ्जीत यथालब्धं मुनिर्यथा ॥३४ क्वापि केनावहूतस्य बन्धुनाऽथ सर्मिणा । तद्गेहे भुञ्जमानस्य न दोषो न गुणः पुनः ॥३५ किञ्चायं सद्मस्वामित्वे वर्तते व्रतवानपि । अर्वागादशमस्थानान्नापरानपरायणः ॥३६ विशेषरो गृहस्थ या श्रावक कहलाता है । वास्तवमें देखा जाय तो एक प्रकारसे मुनिके ही समान है क्योंकि समस्त व्रतोंके समुदायमें वह ब्रह्मचर्य व्रत सबसे अधिक कठिन है, इसका पालन करना अत्यन्त कठिन है इसलिये जिसने इस व्रतको पालन कर लिया उसे मुनिके ही समान समझना चाहिये ॥२६।। ब्रह्मचर्यप्रतिमाको धारण करनेवाला श्रावक मुनिपदको धारण नहीं कर सकता, इसका प्रसिद्ध कारण प्रत्याख्यानावरणकर्मका उदय ही समझना चाहिये ॥२७॥ प्रत्याख्यानावरणकषायके उदयसे वह नग्नपना (मुनिवेष) धारण करनेके लिए समर्थ नहीं है, और भूख-प्यास आदिके दुःखको भी सहन करनेके लिए समर्थ नहीं है ।।२८।। इसीलिए वह घरके त्याग करने में असमर्थ होता है, गृहस्थ अवस्थाका त्याग नहीं कर सकता। अत्यन्त शुद्ध बुद्धिको धारण करनेवाला ब्रह्मचारी श्रावक अवस्थामें ही रहकर उत्कृष्ट वैराग्यको धारण करता है ।।२९।। इस सातवी प्रतिमासे लेकर ग्यारहवीं प्रतिमातकके समस्त श्रावक अपने नियत किये हुए वस्त्र रखते हैं। अपने नियत किये हुए वस्त्रोंके साथ साथ वे मुनियोंके ही समान माने जाते है ।।३०।। इस प्रकार सातवीं प्रतिमाका स्वरूप कहा। अब आगे वक्ताओंमें श्रेष्ठ ग्रन्थकार आठवीं प्रतिमाका स्वरूप कहते हैं । जिसमें आरम्भका सर्वथा भी त्याग है और एकदेश भी त्याग है। खेती व्यापार आदि आजीविकाके कार्योंके आरम्भका सर्वथा त्यागी होता है इसीलिये वह सर्वदेश आरम्भका त्यागी कहलाता है तथा सचित्त अभिषेक पूजन आदि क्रियाओंके आरम्भका त्यागी होता है इसीलिए वह एकदेश आरम्भका त्यागी कहलाता है ॥३१।। इस आठवी प्रतिमाके स्वीकार करनेसे पहले वह सचित्त पदार्थोंका स्पर्श करता था, जैसे अपने हाथसे जल भरता था, छानता था और फिर उसे प्रासुक करता था। इस प्रकार करनेसे उसे अहिंसावतका अतिचार लगता था। परन्तु इस आठवी प्रतिमाको धारण कर लेनेके अनन्तर वह जल आदि सचित्त द्रव्योंको अपने हाथसे छूता भी नहीं है, फिर भला अधिक आरम्भ करनेकी तो बात ही क्या है ॥३२-३३।। आठवीं प्रतिमाको धारण करनेवाला व्रती श्रावक अपने बन्धुवर्गों में से किसी एकके आश्रय रहता है तथा उसके यहाँ जैसा कुछ बना बनाया भोजन मिल जाता है उसे ही मुनिके समान निस्पृह होकर कर लेता है ॥३४॥ कभी कभी यदि कोई अन्य कुटुम्बी अथवा बाहरका कोई अन्य सधर्मी पुरुष भोजनके लिए बुला लेवे तो उसके घर भी भोजन कर लेता है। इस प्रकार भोजन करने में न तो उसक व्रतमें कोई दोष आता है और न कोई गुण बढ़ता है ॥३५।। इस आठवीं प्रतिमाको धारण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy