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________________ १४२ श्रावकाचार-संग्रह शोभतेऽतीव संस्कारात् साक्षादाकरजो मणिः । संस्कृतानि व्रतान्येव निर्जराहेतवस्तथा ॥१० स्यात्प्रोषधोपवासाख्या चतुर्थी प्रतिमा शुभा। कर्तव्या निर्जराहेतुः संवरस्यापि कारणम् ॥११ अस्त्यत्रापि समाधानं वेदितव्यं तदुक्तवत् । सातिचारं च तत्र स्यादत्रातीचारवजितम् ॥१२ बादशवतमध्येऽपि विद्यते प्रोषधं व्रतम् । तदेवात्र समाख्यानं विशेषस्तु विवक्षितः ॥१३ अवश्यमपि कर्तव्यं चतुर्थप्रतिमावतम् । कर्मकाननकोटीनामस्ति दावानलोपमम् ॥१४ पनमी प्रतिमा चास्ति व्रतं सागारिणामिह । तत्सचित्तपरित्यागलक्षणं भक्ष्यगोचरम् ॥१५ इतः पूर्व कदाचिद सचित्तं वस्तु भक्षयेत् । इतः परं स नाश्नुयात्सचित्तं तज्जलाद्यपि ॥१६ ग्यारह प्रतिमातक सब प्रतिमाओंमें समझ लेना चाहिये क्योंकि आगेकी प्रतिमाओंमें बारह व्रत ही विशेषताके साथ पालन किये जाते हैं। उन आगेको प्रतिमाओंमें उन्हों व्रतोंकी विशेष विधिके सिवाय और कुछ नहीं है ॥९।। जिस प्रकार खानिमेंसे निकला हुआ मणि स्वभावसे ही शोभायमान होता है परन्तु यदि उसको शानपर रखकर उसका विशेष संस्कार कर दिया जाय, उसके पहल आदि कर दिये जायं तो वह और अधिक शोभायमान होने लगता है उसी प्रकार व्रत पालन करना स्वभावसे ही कर्मोकी निर्जराका कारण है परन्तु वे ही व्रत यदि अतिचार-रहित पालन किये जायें, तथा विशेष विधिके साथ पालन किये जायें तो कर्मोकी विशेष निर्जराके कारण होते हैं ॥१०॥ चौथी प्रतिमाका नाम प्रोषधोपवास प्रतिमा है। यह प्रतिमा सबमें शुभ है, कर्मोकी निर्जराका कारण और संवरका भी कारण है अतएव व्रती श्रावकोंको इसका पालन अवश्य करना चाहिये ॥११॥ व्रतप्रतिमामें भी प्रोषधोपवास व्रत कहा है तथा यहाँपर चौथी प्रतिमामें भी प्रोषधोपवास व्रत बतलाया है। इसका समाधान वही है जो ऊपर बतलाया है अर्थात् व्रत प्रतिमामें अतिचार सहित पालन किया जाता है तथा यहाँपर चोथी प्रतिमामें वही प्रोषधोपवास व्रत अतिचाररहित पालन किया जाता है ।।१२। जो प्रोषधोपवास व्रत बारह व्रतोंमें वा व्रत प्रतिमामें बतलाया है वही प्रोषधोपवासव्रत यहाँपर चौथी प्रतिमामें बतलाया है, यहाँपर चौथी प्रतिमामें होनेवाले प्रोषधोपवासव्रतमें उससे कुछ विशेषता है और वह विशेषता यही है कि बारह व्रतोंका पालन करनेवाला व्रतप्रतिमावाला श्रावक अष्टमी चतुर्दशीको प्रोषधोपवास करता है तथा कभी किसी स्थानपर कारण मिलनेपर नहीं भी करता है तो भी उसके व्रतकी हानि नहीं होती। किन्तु चौथी प्रतिमावालेको प्रत्येक पर्वके दिन प्रोषधोपवास अवश्य करना पड़ता है, यदि चौथी प्रतिमावाला किसी भी स्थानपर किसी भी कारणसे किसी भी समय प्रोषधोपवास न करे तो फिर उसके व्रतकी अर्थात् चौथी प्रतिमाकी हानि हो जाती है। यही व्रतप्रतिमा और चौथी प्रतिमाके प्रोषधोपवासमें अन्तर है इसलिये ऊपर कहा गया है कि व्रत प्रतिमावाला अतिचार सहित पालन करता है और चौथी प्रतिमावाला अतिचाररहित पालन करता है ॥१३॥ यह प्रोषधोपवासव्रत कर्मरूपी करोड़ों वनोंको जलानेके लिये दावानल अग्निके समान है, जिस प्रकार दावानल अग्नि करोड़ों वनोंको भस्म कर देती है उसी प्रकार इस प्रोषधोपवासवतके पालन करनेसे करोड़ों जन्मके अनन्तानन्त कर्म नष्ट हो जाते हैं अतएव व्रती श्रावकोंको इस चौथी प्रतिमाका पालन अवश्य करना चाहिये ॥१४॥ गृहस्थ व्रतियोंकी पांचवीं प्रतिमाका नाम सचित्तत्यागप्रतिमा है। यह प्रतिमा केवल खाने बोग्य पदार्थोसे सम्बन्ध रखती है ॥१५॥ इस पांचवीं प्रतिमाको पालन करनेवाला श्रावक इससे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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