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________________ श्रावकाचार-संग्रह दोषः सुखानुबन्धाख्यो यथात्रास्मोह दुःखवान् । मृत्वापि व्रतमाहात्म्याद् भविष्येऽहं सुखी क्वचित् ॥२४० दोषो निदानबन्धाख्यो यथेच्छेन्मरणं कुधीः । भवेयं व्रतमाहात्म्यावस्य घाताय तत्परः ॥२४१ यदि वा मरणं चेच्छेन्मोहोद्रेकात्स मूढधीः । भवेयं चोपकाराय मित्रस्यास्य व्रतादितः ॥२४२ यदि वा मरणं चेच्छेदज्ञानाद्वा सुखाशया । भूयान्मे व्रतमाहात्म्यात्स्वर्गश्रीरद्विवादिनी ।।२४३ एतैर्दोषैनिर्मुक्तमन्त्यसल्लेखनावतम् । स्वर्गापवर्गसौख्यानां सुधापानाय जायते ॥२४४ उक्ता सल्लेखनोपेता द्वादशवतभावनाः । एताभितप्रतिमा पूर्णतां याति सुस्थिता ॥२४५ इति श्रावकाचारापरनामलाटीसंहितायां मृषात्यागादिलक्षणचतुष्क-गुणवतत्रिक __शिक्षाव्रतचतुष्टयप्रतिमाप्रतिपादकः पञ्चमः सर्गः ॥५॥ अतिचारका भी त्याग कर देना चाहिये ॥२३९।। "मैं इस जन्ममें बहत दुःखी हूँ, मैंने जो ये व्रत पालन किये इनके माहात्म्यसे मैं मर कर किसी दूसरे स्थानमें जाकर सखी हँगा" इस प्रकार चिन्तवन करना सुखानुबन्ध नामका अतिचार है । अथवा इस जन्ममें जिन-जिन सुखोंका अनुभव किया है उनका स्मरण करना भी सुखानुबन्ध नामका अतिचार है ॥२४०।। यदि समाधिमरण धारण करनेवाला कोई श्रावक अपनी दुबुद्धिके दोषसे यह चिन्तवन करे कि "मैं इस व्रतके माहात्म्यसे मर कर ऐसे स्थान में उत्पन्न होऊं जो इस अपने शत्रुका घात करूँ" यही सोचकर मरनेकी इच्छा करना निदान नामका अतिचार है ।।२४१।। अथवा कोई मूर्ख मोहनीयकर्मके उदयसे यह चिन्तवन करे कि "मैं मर कर इस व्रतके माहात्म्यसे ऐसे स्थानमें उत्पन्न होऊं जो अपने इस मित्रका अच्छा उपकार करू" इस प्रकार चिन्तवन कर मरनेकी इच्छा करना निदानबन्ध नामका अतिचार है ॥२४२।। अथवा अपने अज्ञानसे सुखकी इच्छा करता हुआ वह समाधिमरण धारण करनेवाला यह चिन्तवन करे कि "मैं शीघ्र मर जाऊँ जिससे मुझे इस व्रतके माहात्म्यसे स्वर्गको अद्वितीय लक्ष्मी प्राप्त हो।" इस प्रकार चिन्तवन कर मरने की इच्छा करना निदान नामका अतिचार है ॥२४३।। जो व्रती मनुष्य ऊपर लिखे समस्त दोषोंसे रहित इस मरणसमयके सल्लेखनाव्रतको पालन करते हैं अर्थात् इस सल्लेखनाव्रतको अतिचाररहित पालन करते हैं उनको स्वर्ग और मोक्षके अनुपम सुखरूपी अमृत अवश्य पीनेको मिलता है ॥२४४।। इस प्रकार सल्लेखनाव्रतके साथ बारह व्रतोंका तथा उनकी भावनाओंका निरूपण किया। जो व्रती श्रावक इन सम्पूर्ण व्रतोंको पालन करता है उसके व्रतप्रतिमा पूर्णरीतिसे पालन होती है। भावार्थ-इन सब व्रतोंको निर्दोष और निरतिचार पालन करना व्रतप्रतिमा कहलाती है ॥२४५।। इस प्रकार व्रतप्रतिमाका स्वरूप कहा । इस प्रकार सत्याणुव्रत आदि चार अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चारों शिक्षाव्रतोंको निरूपण करने वाला अथवा दूसरी प्रतिमाके स्वरूपको पूर्ण कहनेवाला यह पांचवां सर्ग समाप्त हुआ ॥५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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