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संहिता १३९ सोऽस्ति सल्लेखना कालो जीर्णे वयसि चाथवा । दैवाद्घोरोपसर्गेऽपि रोगे साध्यतरेऽपि च ॥ २३३ क्रमेणारा धनाशास्त्रप्रोक्तेन विधिना व्रती । वपुषश्च कषायाणां जयं कृत्वा तनुं त्यजेत् ॥ २३४ धन्यास्ते वीर कर्माणो ज्ञानिनस्ते व्रतावहाः । येषां सल्लेखनामृत्यु: निष्प्रत्यूहतया भवेत् ||२३५ दोषाः सूत्रोदिताः पञ्च सन्त्यतीचारसंज्ञकाः । अन्त्यसल्लेखनायास्ते संत्याज्याः पारलौकिकैः ॥२३६ तत्सूत्रं यथा
जीवितमरणाशं सामित्रानुरागसुखानुबन्धनिदानानि ॥६२
आशंसा जीविते मोहाद् यथेच्छेदपि जीवितम् । यदि जीव्ये वरं तावद्दोषोऽयं यत्समस्यते ॥२३७ आशंसा मरणे चापि यथेच्छेन्मरणं द्रुतम् । वरं मे मरणं तूर्ण मुक्तः स्यां दुःखसङ्कटात् ॥२३८ दोषो मित्रानुरागाख्यो यन्नेच्छेन्मरणं क्वचित् । पुरस्तान्मित्रतो मृत्युवरं पश्चान्न मे वरम् ||२३९
को संख्याव्रत कहते हैं । यहाँपर संख्या शब्दका अर्थ नियत की हुई संख्या अथवा परिमाण है इसीलिये इसको संख्याव्रत कहते हैं । अब आगे सल्लेखना व्रतको कहते हैं । व्रती श्रावकको मरण समयमें होनेवाली सल्लेखना भी अवश्य करनी चाहिये || २३२ || जब अपनी आयु अत्यन्त जीर्ण हो जाय अर्थात् सबसे अधिक बुढ़ापा आ जाय अथवा देवयोगसे कोई घोर उपसर्गं आ जाय (जलमें डूब जाय अथवा अग्निमें जल मरनेका समय आ जाय ) अथवा कोई प्रबल और असाध्य रोग हो जाय तो वही समय सल्लेखनाका समय समझना चाहिये || २३३ || व्रती श्रावकको आराधनाशास्त्रों में कही हुई विधिके अनुसार अनुक्रमसे शरीर और कषायोंको जीतना चाहिये और फिर शरीरका त्याग करना चाहिये || २३४|| इस संसारमें वे ही व्रती श्रावक धन्य हैं, वे ही शूरवीर या वीर कर्म करनेवाले हैं और वे ही ज्ञानी हैं जिनका समाधिमरण विना किसी विघ्नके पूर्ण हो जाता है || २३५|| इस सल्लेखनाव्रतके भी पाँच अतिचार हैं जो सूत्रकारने भी अपने सूत्रमें बतलाये हैं । परलोक में सुख चाहनेवाले व्रती श्रावकोंको इस मरण समयमें होनेवाले सल्लेखनाव्रतके उन पाँचों अतिचारोंका त्याग अवश्य कर देना चाहिये ॥२३६॥
उन अतिचारोंको कहनेवाला सूत्र यह है— जीवित रहनेकी आशा रखना, शीघ्र मरने की आशा रखना, मित्रोंमें प्रेम रखना, भोगे हुए सुखोंका अनुभव करना अथवा आगामी सुखोंको चाह करना और निदान करना ये पाँच सल्लेखनाव्रतके अतिचार हैं ॥ ६२॥
आगे इन्हींका वर्णन करते हैं। मोहनीयकर्मके उदयसे जीवित रहनेकी आशा करना अथवा अपने जीवित रहनेकी इच्छा करना अथवा 'में यदि तब तक जीता रहूँ तो अच्छा' इस प्रकार नियत काल तक जीवित रहने की इच्छा करे तो उसके जीविताशंसा नामका पहला अतिचार होता है || २३७|| "मुझे इस समय बहुत दुःख हो रहा है, यदि मेरा मरण शीघ्र हो जाय तो मैं इस भारी दुःखसे छूट जाऊँ" इस प्रकार विचार कर शीघ्र ही मरनेकी इच्छा करना मरणाशंसा नामका दूसरा अतिचार है || २३८|| "मेरा मरण यदि मेरे मित्रके सामने ही होता तो अच्छा, मित्रके पीछे मेरा मरण होना अच्छा नहीं" इस प्रकार मित्रके सामने ही अपने मरणकी इच्छा करना मित्रानुराग नामका अतिचार है । मित्रानुराग शब्दका अर्थ मित्रोंमें प्रेम रखना है । सो इस प्रकार मित्रके सामने मरनेकी इच्छा करना भी मित्रानुराग है । अथवा पहले जो मित्रोंके साथ बालकपनमें क्रीडा की थी उसका स्मरण करना भी मित्रानुराग है । ऐसा स्मरण करनेसे भी परिणामोंकी निर्मलतामें कमी आ जाती है इसलिये समाधिमरण धारण करनेवालोंको इस
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