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________________ १३८ अस्ति सूत्रोदितं शुद्धं तत्रातीचारपञ्चकम् । अतिथिसंविभागाख्यव्रत रक्षार्थं परित्यजेत् ॥ २२५ तत्सूत्रं यथा श्रावकाचार-संग्रह सचित्तनिक्षेपापिधानपरव्यपदेश मात्सर्यकालातिक्रमाः ॥ ६१ सचिते पद्मपत्रादौ निक्षेपोऽनादिवस्तुनः । दोषः सचित्तनिक्षेपो भवेदन्वर्थसंज्ञकः ॥ २२६ अपिधानमावरणं सचित्तेन कृतं यदि । स्यात्सचित्तापिधानाख्यं दूषणं व्रतधारिणः ॥ २२७ आस्माकीनं सुसिद्धानं त्वं प्रयच्छेति योजनम् । दोषः परोपदेशस्य करणाख्यो व्रतात्मनः ॥ २२८ प्रयच्छन्नच्छमन्नादि गर्वमुद्वहते यदि । दूषणं लभते सोऽपि महामात्सर्यसंज्ञकम् ॥ २२९ ईषन्न्यूनान्च मध्याह्नाद्दान कालावधोऽथवा । ऊध्वं तद्भावनाहेतोर्दोषः कालव्यतिक्रमः ॥२३० एतैर्दोषैविनिर्मुक्तं पात्रेभ्यो दानमुत्तमम् ।। अतिथिसंविभागाख्यव्रतं तस्य सुखाप्तये ॥२३१ यथात्मज्ञानमाख्यातं संख्याव्रतचतुष्टयम् । अस्ति सल्लेखना कार्या तद्वतो मारणान्तिकी ॥२३२ नहीं देना चाहिये || २२४ || अन्य व्रतोंके समान इस व्रतके भी सूत्र में कहे हुए पाँच अतिचार हैं अतएव इस अतिथिसंविभाग व्रतकी रक्षा करनेके लिए, इस व्रतको निर्दोष पालन करने के लिए उन पाँचों अतिचारोंका भी त्याग कर देना चाहिये ॥ २२५ ॥ उन अतिचारोंको कहनेवाला सूत्र यह है - आहारदान देते हुए सचित्त वस्तुपर रक्खे हुए पदार्थको दान देना, सचित्त वस्तुसे ढके हुए पदार्थको दान देना, दान देनेके लिए दूसरेको आज्ञा देना, मात्सर्य या ईर्षा करना और समयको टालकर आहारका समय बीत जानेपर द्वारावलोकन करना ये पाँच अतिथिसंविभागव्रतके अतिचार हैं ॥ ६१ ॥ भात, आगे इन्हींका वर्णन करते हैं। सचित्त (हरित ) कमलके पत्तेपर या केले के पत्तेपर रक्खे हुए पदार्थको आहार दानमें देना सचित्तनिक्षेप नामका अतिचार है । जिसमें चेतनाके अंश हों उसको सचित्त कहते हैं, ऐसे सचित्त पदार्थपर रक्खे हुए दाल भात आदि पदार्थोंका दान देना सचित्तनिक्षेप नामका पहला अतिचार है || २२६ || अपिधान शब्दका अर्थ ढकना है । जो दाल, रोटी आदि पदार्थ हरे कमलके पत्त े आदि सचित्त पदार्थोंसे ढके हुए हैं ऐसे पदार्थों का दान देने से व्रती श्रावकके लिए सचित्तापिधान नामका दूसरा अतिचार लगता है || २२७|| "यह हमारा बना बनाया तैयार भोजन है इसको तुम दान देना" इस प्रकार दान देनेके लिए दूसरेको कहना व्रतो श्रावकके लिए परव्यपदेश नामका तीसरा अतिचार है || २२८|| यदि कोई दान देनेवाला दाता दान में किसी निर्दोष अन्नको देवे परन्तु उसको देते हुए वह यदि अभिमान करे और यह समझे कि निर्दोष अन्न मैंने ही दिया है इस प्रकारका समझना या अभिमान करना महामात्सर्य नामका अतिचार कहलाता है || २२९|| दान देनेका समय दोपहरके समयसे कुछ पहलेका समय है. उस आहार दान देनेके समय से पहले अथवा उसके बाद यदि आहार दानकी भावना करनेके लिए द्वारावलोकन करे तो उसके कालातिक्रम नामका पाँचवाँ अतिचार होता है || २३०|| जो व्रती श्रावक समयानुसार प्राप्त हुए उत्तम मध्यम जघन्य पात्रोंको ऊपर लिखे पाँचों अतिचारोंसे रहित दान देता है और इस प्रकार इस अतिथिसंविभाग व्रतको निर्दोष पालन करता है उसको स्वर्ग मोक्षके अनुपम सुखों को प्राप्ति अवश्य होती है || २३१|| इस प्रकार अपने ज्ञानके अनुसार चारों संख्याव्रतोंका अथवा शिक्षाव्रतोंका निरूपण किया । तथा इन चारों व्रतोंमें पापोंका त्याग किया जाता है तथा नियतकाल तक त्याग किया जाता है या परिमाण किया जाता है इसलिये इन व्रतों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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