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________________ लाटीसंहिता ब्रह्मचर्य च कर्तव्यं धारणादिदिनत्रयम् । परयोषिन्निषिद्धा प्रागिदं त्वात्मकलत्रके ॥२०३ स्युः प्रोषधोपवासस्य दोषाः पञ्चोदिताः स्मृतौ । निरस्यास्ते व्रतस्थैस्तैः सागारैरपि यत्नतः ॥२०४ तत्सूत्रं यथा-- अप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितोत्सर्गादानसंस्तरोपक्रमणानादरस्मृत्यनुपस्थानानि ॥५८ जीवाः सन्ति न वा सन्ति कर्तव्यं प्रत्यवेक्षणम् । चक्षुर्व्यापारमा स्यात्सूत्रात्तल्लक्षणं यथा ॥२०५ प्रमार्जनं च मृदुभिः यथोपकरणैः कृतम् । उत्सर्गादानसंस्तरविषयं चोपबृंहणम् ॥२०६ अप्रत्यवेक्षितं तत्र यथा स्यादप्रमाजितम् । मूत्राद्युत्सर्ग एवास्ति दोषः प्रोषधसंयमे ॥२०७ यथोत्सर्गस्तथाऽऽदानं संस्तरोपक्रमस्तथा । तन्नामानो व्यतीचारा दोषाः प्रोक्ता व्रतस्य ते ॥२०८ ज्ञेयः पूर्वोक्तसंदर्भादनुत्साहोऽप्यनादरः । प्रोषधोपोषितस्यास्य दोषोऽतीचारसंज्ञकः ॥२०९ स्यात्स्मृत्यनुपस्थानं दूषणं प्रोषधस्य तत् । अनेकाग्र्यं तदेव स्याल्लक्षणादपि लक्षणम् ॥२१० ध्यानमें रखना चाहिये कि ऐसे व्रती श्रावकके लिये परस्त्रीका निषेध या त्याग तो पहले ही कह चुके हैं। अब यहाँ पर जो तीन दिनके लिये ब्रह्मचर्यका पालन बतलाया है वह अपनी विवाहिता धर्मपत्नीके सेवन करनेका त्याग बतलाया है ॥२०३।। अन्य व्रतोंके समान इस प्रोषधोपवासके भी श्रावकाचारोंमें पाँच अतिचार बतलाये हैं। व्रती श्रावकोंको इन पांचों अतिचारोंका त्याग बड़े प्रयत्नसे कर देना चाहिये ।।२०४।। वह सूत्र यह है-अप्रत्यवेक्षित-अप्रमार्जित-उत्सर्ग अर्थात् बिना देखे बिना शोध मलमत्र करना या कोई वस्तु रखना, अप्रत्यवेक्षित-अप्रमार्जित-आदान अर्थात् बिना देखे बिना शोधे कोई वस्तु उठाना, अप्रत्यवेक्षित-अप्रमाजितसंस्तरोपक्रमण अर्थात् बिना देखे बिना शोधे साथरा या सोनेका बिछौना बिछाना, अनादर अर्थात् व्रतको उत्साहपूर्वक नहीं करना और स्मृत्यनुपस्थान अर्थात् उस दिन मनको स्थिर न रखकर चंचल रखना ये पाँच प्रोषधोपवासके अतिचार हैं ॥५८॥ आगे इन्हींका विशेष वर्णन करते हैं । जीव हैं अथवा नहीं हैं इस बातको जाननेके लिये नेत्रोंसे खुब अच्छी तरह देखना प्रत्यवेक्षण कहलाता है। प्रत्यवेक्षणका लक्षण सूत्रोंमें यही बतलाया है ॥२०५।। कोमल वस्त्रोंसे पोंछना झाड़ना प्रमार्जन कहलाता है। किसी वस्तुको रखना हो, उठाना हो या बिछौना या सांथरा बिछाना हो तो उन सबको खूब अच्छी तरह देखकर या कोमल वस्त्रसे झाड़-पोंछ कर रखना या उठाना चाहिये तथा देख-शोध कर बिछौना या सांथरा बिछाना चाहिये जिससे किसी जीवका घात न हो। ऐसा करनेसे व्रत निर्दोष पलता है, व्रतकी वृद्धि होती है ॥२०६।। बिना देखे बिना शोधे मल मूत्र करना या अन्य कोई पदार्थ रखना प्रोषधोपवासका पहला अतिचार है ॥२०७।। जिस प्रकार बिना देखे बिना शोधे किसी पदार्थको रखना पहला अतिचार है उसी प्रकार बिना देखे और बिना शोधे झाड़े किसी भी पुस्तक आदि धर्मोपकरणको उठा लेना अप्रत्यवेक्षित-अप्रमार्जित-आदान नामका प्रोषधोपवास व्रतका दूसरा अतिचार कहलाता है तथा बिना देखे बिना शोधे सांथरा बिछाना या सोनेके लिये चटाई आदि बिछाना इस प्रोषधोपवासव्रतका अप्रत्यवेक्षित-अप्रमार्जित-संस्तरोपक्रमण नामका तीसरा अतिचार है ॥२०८॥ अनादरका लक्षण जो पहले कह चुके हैं वही ग्रहण करना चाहिये अर्थात् इस प्रोषधोपवास व्रतको उत्साहपूर्वक न करना, बिना उत्साहके, बिना मनके करना प्रोषधोपवासका अनादर नामका चौथा अतिचार या दोष कहलाता है ॥२०९|| प्रोषधोपवासके दिन मनको स्थिर न रखना, चंचल या डावांडोल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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