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________________ - प्रावकाचार-संग्रह ख्यातं सामायिकं नाम व्रतं चाणुवताथिनाम् । अतीचारविनिर्मुक्तं भवेत्संसारविच्छिदे ॥१९४ स्यात्प्रोषधोपवासाख्यं व्रतं च परमौषधम् । जन्ममृत्युजरातङ्कविध्वंसनविचक्षणम् ॥१९५ चतुर्दाशनसंन्यासो यावद् यामाश्च षोडश । स्थितिनिरवद्यस्थाने व्रतं प्रोषधसंज्ञकम् ॥१९६ कर्तव्यं तदवश्यं स्यात्पर्वण्यां प्रोषषव्रतम् । अष्टम्यां च चतुर्दश्यां यथाशक्त्यापि चान्यदा ॥१९७ धारणाह्नि त्रयोदश्यां मध्याह्न कृतभोजनः । तिष्ठेत्स्थानं समासाद्य नीरागं निरवद्यकम् ॥१७८ तत्रव निवसेद् रात्री जागरूको यथाबलम् । प्रातरादिदिनं कृत्स्नं धर्मध्याननयेद् व्रती ॥१९९ जलपानं निषिद्धं स्यान्मुनिवत्तत्र प्रोषधे । न निषिद्धाऽनिषिद्धा स्यादर्हत्पूजा जलादिभिः ॥२०० यवा सा क्रियते पूजा न दोषोऽस्ति तदापि वैन क्रियते सा तदाप्यत्र दोषो नास्तीह कश्चन ॥२०१ एवमित्यादि तत्रैव नीत्वा रात्रि स धर्मधीः । कृतक्रियोऽशनं कुर्यान्मध्याह्ने पारणादिने ॥२०२ रहित सामायिकका पाठ पढ़ता है या शीघ्रताके साथ पढ़ता है या पढ़ते-पढ़ते भूल जाता है या कुछ छोड़कर आगे पढ़ने लगता है तब उसके स्मृत्यनुपस्थान नामका सामायिकका पाँचवां अतिचार होता है ॥१९॥ इस प्रकार अणुव्रत धारण करनेवाले व्रती श्रावकोंके लिये सामायिक नामके शिक्षाव्रतका स्वरूप कहा । यदि इस व्रतको अतिचाररहित पालन किया जाय तो इस जीवके संसार परिभ्रमणका अवश्य ही नाश हो जाता है और मोक्षकी प्राप्ति अवश्य होती है ॥१९४॥ आगे प्रोषधोपवासव्रतका स्वरूप कहते हैं। जन्म, मरण, बुढ़ापा, रोग आदि संसार सम्बन्धी समस्त दुःखों को, समस्त रोगोंको नाश करनेके लिये यह प्रोषधोपवास नामका व्रत एक विलक्षण और सबसे उत्तम औषधि है ॥१९५॥ सोलह पहर तक चार प्रकारके आहारका त्याग कर देना और जिनालय आदि किसी भी निर्दोष स्थानमें रहना प्रोषधोपवासवत कहलाता है ॥१९६।। यह प्रोषधोपवास नामका व्रत अष्टमी और चतुर्दशी इन दोनों पर्वोके दिनोंमें अवश्य करना चाहिये ॥१९७॥ यदि चतुर्दशीको प्रोषधोपवास करना हो तो इस व्रतको त्रयोदशीके दिन ही ग्रहण करना चाहिये । त्रयोदशीके दिन मध्याह्नमें या दोपहरके समय एक बार भोजन करना चाहिए तथा भोजनके बाद किसी निर्दोष और रागरहित स्थानमें जाकर रहना चाहिये ॥१९८॥ बाकी दिन उसे वहीं बिताना चाहिये, रात्रिमें भी वहीं निवास करना चाहिये । उस रातको अपनी शक्तिके अनुसार जगते रहना चाहिये । प्रातःकाल उठकर उस व्रती श्रावकको वह समस्त दिन धर्मध्यानसे बिताना चाहिये ॥१९९॥ प्रोषधोपवासके दिन उस व्रती श्रावकको जल नहीं पीना चाहिये । आचार्योंने प्रोषधोपवासके दिन मुनियोंके समान ही जलपानका निषेध किया है । इसमें भी इतना और समझ लेना चाहिये कि उस व्रती श्रावकको जलके पीनेका निषेध है, जल चन्दन अक्षत आदि आठों द्रव्योंसे भगवान् अरह्न्तदेवकी पूजा करनेका निषेध नहीं है ।।२००।। प्रोषधोपवासके दिन भगवान् अरहन्तदेवकी पूजा करनेके लिये आचार्योंकी ऐसी आज्ञा है कि व्रती श्रावक यदि प्रोषधोपवाससे दिन भगवान् अरहन्तदेवकी पूजा करे तो भी कोई दोष नहीं है। यदि उस दिन वह पूजा न करे तो भी कोई दोष नहीं है ।।२०१।। उस धर्मात्मा व्रती श्रावकको वहीं पर उस दिनकी रात्रि व्यतीत करनी चाहिये तथा पारणाके दिन अर्थात् पूर्णिमाके दिन प्रातः काल उठकर पूजा, स्वाध्याय, ध्यान आदि अपना नित्य कर्तव्य करना चाहिये और दोपहरके समय एक बार भोजन करना चाहिये ॥२०२॥ धारणाके दिनसे लेकर अर्थात् त्रयोदशीसे लेकर तीन दिन तक त्रयोदशी, चतुर्दशी और पूर्णिमा इन तीनों दिन उसे ब्रह्मचर्य पालन करना चाहिये । यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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