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________________ लाटीसंहिता तत्रार्द्धरात्रके पूजां न कुर्यादर्हतामपि । हिसाहेतोरवश्यं स्याद्रात्रौ पूजाविवर्जनम् ॥१८६ एवं प्रवर्तमानश्च सागारो व्रतवानिह । स्वर्गादिसम्पदो भुक्त्वा निर्वाणपदभाग्भवेत् ॥ १८७ सामायिकव्रतस्यापि पञ्चातीचारसंज्ञकाः । दोषाः सन्ति प्रसिद्धास्ते त्याज्याः सूत्रोदिता यथा १८८ तत्सूत्रं यथा- योग दुष्प्रणिधानानादरस्मृत्यनुपस्थानानि ॥५७ सामायिकादितोऽन्यत्र मनोवृत्तिर्यदा भवेत् । मनोदुष्प्रणिधानाख्यो दोषोऽतीचारसंज्ञकः ॥ १८९ वाग्योगोऽपि ततोऽन्यत्र हुंकारादिप्रवर्तते । वचोदुष्प्रणिधानाख्यो दोषोऽतीचारसंज्ञकः ॥१९० काययोगस्ततोऽन्यत्र हस्तसंज्ञादिदर्शने । वर्तते तदतीचारः कायदुष्प्रणिधानकः ॥ १९१ यदाऽऽलस्यतया मोहात्कारणाद्वा प्रमादतः । अनुत्साहतया कुर्यात्तदाऽनादरदूषणम् ॥१९२ अस्ति स्मृत्यनुपस्थानं दूषणं प्रकृतस्य यत् । न्यूनं वर्णैः पदैर्वाक्यैः पठ्यते यत्प्रमादतः ॥ १९३ चाहिये । फिर आधी रातके समय उठकर सामायिक करना चाहिये || १८५ || इसमें भी इतना विशेष है कि आधी रात के समय भगवान् अरहन्तदेवकी पूजा नहीं करनी चाहिये क्योंकि आधी रात के समय पूजा करनेसे हिंसा अधिक होती है। रात्रिमें जीवोंका संचार अधिक होता है तथा यथोचित रीतिसे जीव दिखाई भी नहीं पड़ते इसलिये रात्रिमें पूजा करनेका निषेध किया है ||१८६|| इस संसार में इस प्रकार ऊपर लिखी हुई क्रियाओं को करता हुआ व्रती गृहस्थ स्वर्गादिकके अनुपम सुखों को भोगकर अनुक्रमसे मोक्ष प्राप्त करता है || १८७|| अन्य व्रतोंके समान इस सामायिक व्रतके भी पाँच अतिचार हैं जो दोषोंके नामसे प्रसिद्ध हैं और जिनका वर्णन सूत्रमें भी किया है । व्रती श्रावकोंको उन अतिचारोंका भी सर्वथा त्याग कर देना चाहिये ||१८८ || १३३ उन अतिचारोंको कहनेवाला जो सूत्र है वह यह है - मनोदुष्प्रणिधान अर्थात् मनके द्वारा अशुभ चिन्तवन, वचनदुष्प्रणिधान अर्थात् वचनके द्वारा अशुभ प्रवृत्ति, काय दुष्प्रणिधान अर्थात् शरीर के द्वारा अशुभ क्रियाका होना, अनादर और स्मृत्यनुपस्थान अर्थात् भूल जाना ये पाँच सामायिक के अतिचार हैं ॥५७॥ आगे इन्हींका स्वरूप दिखलाते हैं । सामायिक करते समय अपने मनकी प्रवृत्ति सामायिक के सिवाय अन्य कार्योंमें लगाना — अपने आत्माके स्वरूपके चिन्तवन के सिवाय या पंच परमेष्ठी के स्वरूपके चिन्तवनके सिवाय अन्य किसी भी पदार्थका चिन्तवन करना मनोदुष्प्रणिधान नामका दोष है जो सामायिकका पहला अतिचार कहलाता है || १८९ || सामायिक करते समय हुँ हुँ, हूँ, हाँ आदि रूपसे वचनोंकी प्रवृत्ति सामायिकके सिवाय अन्य कार्य में लगाना वचनदुष्प्रणिधान नामका दोष है । उस समय किसी भी कार्यके इशारेके लिए हूँ, हाँ करना सामायिकका दूसरा अतिचार है ॥ १९०॥ इसी प्रकार सामायिक करते समय अपने शरीरकी प्रवृत्ति सामायिकके सिवाय अन्य किसी भी कार्य में लगाना, हाथ, उँगली, माथा, आँख भौंह आदिके इशारेसे किसी भी कार्यका इशारा करना किसी पदार्थको इशारेसे दिखलाना कायदुष्प्रणिधान नामका अतिचार कहलाता है ॥१९१॥ यह व्रती श्रावक जब कभी आलससे, मोहसे या प्रमादसे या अन्य किसी कारणसे बिना उत्साहके सामायिक करता है तब उसके अनादर नामका चौथा अतिचार लगता है || १९२ || जब कभी यह व्रती श्रावक प्रमादी होकर वर्णरहित (अक्षररहित) पदरहित या वाक्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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