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श्रावकाचार-संग्रह ततः पूजनमत्रास्ति ततो नाम विसर्जनम् । पञ्चधेयं समाख्याता पञ्चकल्याणदायिनी ॥१७४ तद्विधिश्चात्र निर्दिष्टुमर्हन्नप्युपलक्षितः । स्मृतेः संक्षेपसङ्केताद्विधेश्चातीव विस्तरात् ॥१७५ एवमित्याद्यवश्यं स्यात्कर्तव्यं व्रतधारिभिः । अस्ति चेदात्मसामर्थ्य कुर्याच्चाप्यपरं विधिम् ॥१७६ अर्चयेच्चैत्यवेश्मस्थानहदिम्बादिकानपि । सूर्युपाध्यायसाधूश्च पूजयेद् भक्तितो व्रती ॥१७७ ततो मुनिमुखोद्गीणं प्रोक्तं वा सद्मसूरिभिः । धर्मस्य श्रवणं कुर्यादादराद् ज्ञानचक्षुषे ॥१७८ गृहकार्य ततः कुर्यादात्मनिन्दादिमानयम् । ततो मध्याह्निके प्राप्ते भूयः कुर्यादमुं विधिम् ।।१७९ अतिथिसंविभागस्य भावनां भावयेदपि । मध्याह्नादीषदग्वैि नातः कालाद्यतिक्रमे ॥१८० भोजयित्वा स्वयं यावत्क्षणं शेते सुखाशया। धारयेद्धर्मश्रवणं पूर्वाले यच्छ्रुतं स्मृतेः ॥१८१ ऊहापोहोऽपि कर्तव्यः साद्धं चापि समिमिः । अस्ति चेद् ज्ञानसामर्थ्य कार्य शास्त्रावलोकनम् ॥१८२ गृहकार्य ततः कुर्याद भूयः संध्यावधेरिह । ततः सायंतने प्राप्ते कुर्यात्सामायिकों क्रियाम् ॥१८३ किञ्चापराह्लके काले जिनबिम्बान् प्रागर्चयेत् । ततः सामायिकं कुर्यादुक्तेन विधिना व्रती ॥१८४ ततश्च शयनं कुर्याद्यथानिद्रं यथोचितम् । निशीथे पुनरुत्थाय कुर्यात्सामायिकी क्रियाम् ॥१८५
करना चाहिये तदनन्तर पूजा करनी चाहिये और फिर विसर्जन करना चाहिये। इस प्रकार यह पूजा पांच प्रकारकी बतलायी है। यह पाँच प्रकारसे की हुई पूजा पंचकल्याणक फलको देनेवाली है ॥१७३-१७४॥ पूजाकी विधि बहुत बड़ी है यद्यपि उसको पूर्ण रीतिसे मैं कह सकता हूँ तथापि मैंने उसका उपलक्षण मात्र कहा है क्योंकि पूजाकी विधि तो बहुत बड़ी है और यह स्मृतिशास्त्र अथवा श्रावकाचार अत्यन्त संक्षेपसे केवल संकेतमात्र कहा है ॥१७५।। व्रती श्रावकोंको ऊपर लिखे अनुसार कर्तव्य तो अवश्य पालन करना चाहिये। यदि उसकी अधिक सामर्थ्य हो तो अन्य शास्त्रों के अनुसार उसे और विधि भी करनी चाहिये ॥१७६।। तदनन्तर उस व्रती श्रावकको जिनालयमें जा कर वहांपर विराजमान भगवान् अरहन्तदेवके बिम्बोंकी पूजा करनी चाहिये तथा आचार्य उपाध्याय और साधुओंकी पूजा भी भक्तिके साथ करनी चाहिये ॥१७७॥ तदनन्तर मुनिराजके मुखारविन्दसे कहे हुए धर्मका श्रवण करना चाहिये अथवा अपने ज्ञानरूपी नेत्रोंकी ज्योति बढ़ानेके लिये अपने घरके आचार्यके (गृहस्थाचार्य के) द्वारा कहे हुए धर्मका श्रवण बड़े आदरके साथ करना चाहिये ॥१७८॥
तदनन्तर अपनी निन्दा करते हुए उस व्रती श्रावकको अपने घरके व्यापार-धन्धे करने चाहिये और दोपहरका समय होनेपर फिर भगवान् अरहन्तदेवकी पूजा करनी चाहिये ॥१७९|| दोपहरके कुछ समय पहले अतिथिसंविभागवतकी भावनाका भी चिन्तवन करना चाहिये ॥१८०॥ फिर भोजन कर थोड़ी देर तक आराम करनेके लिये सोना चाहिये। फिर प्रातःकाल मुनियोंसे या गृहस्थाचार्यसे जो धर्म श्रवण किया था उसका मनन करना चाहिये, चिन्तवन करना चाहिये और धारण करना चाहिये ॥१८१।। इसी समय धर्मात्माओंके साथ बैठकर धर्म चर्चा करनी चाहिये । यदि अपने में ज्ञानकी सामर्थ्य अधिक हो तो शास्त्रोंका अवलोकन करना चाहिये ॥१८२।। तदनन्तर फिर शाम तक घरके व्यापार-धन्धे करने चाहिये तथा शाम हो जानेपर सामायिक करना चाहिये ॥१८३।। इसमें भी इतना विशेष है कि शाम हो जानेपर पहले भगवान् अरहन्तदेवकी पूजा करनी चाहिये और फिर उस व्रती श्रावकको ऊपर लिखी विधिके अनुसार सामायिक करना चाहिये ॥१८४॥ फिर सोना चाहिये। अपनी नींदके अनुसार तथा जितना उचित समझा जाय उतना सोना
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