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________________ लाटोसंहिता हेयं किं किमुपादेयं मम शुद्धचिदात्मनः । कर्तव्यं कि मया त्याज्यमधुना जीवनावधि ॥१६३ इति चिन्तयतस्तस्य संवेगो जायते गणः। संसारभवभोगेभ्यो वैराग्यं चोपवहति ॥१६४ ततः साधुसमाधिश्च सामायिकवतान्वितः । ततः सामायिकी क्रियां कुर्याद्वा शल्यजितः ॥१६५ तजिनेन्द्रगुणस्तोत्रां पठेत्पद्यादिलक्षणम् । सिद्धानामथ साधूनां कुर्यात्सोऽपि गुणस्तुतिम् ॥१६६ ततोऽहभारती स्तुत्वा जगच्छान्तिमधीय च । क्षणं ध्यानस्थितो भूत्वा चिन्तमेच्छुद्धचिन्मयम् ॥१६७ ततः सम्पूर्णतां नीत्वा ध्यानं कालानतिक्रमात् । संस्तुतानां यथाशक्ति तत्पूजा कर्तुमर्हति ॥१६८. स्नानं कुर्यात्प्रयत्नेन संशुद्धः प्रासुकोदकैः । गृह्णीयाधौतवस्त्राणि दृष्टिपूतानि प्रायशः ॥१६९ ततः शनः शनंगत्वा स्वसदमस्थजिनालये। द्रव्याण्यष्टौ जलादीनि सम्यगादाय भाजने ॥१७० तत्रस्थान जिनबिम्बांश्च सिद्धयन्त्रान समर्चयेत । दर्शनज्ञानचारित्रत्रयं स्थाप्य समर्चयेत् ॥१७१ शेषानपि यथाशक्ति गणानप्यर्चयेद व्रतो। अत्र संक्षेपमात्रत्वादुक्तमूल्लेखतो मया ॥१७२ अस्त्यत्र पञ्चधा पूजा मुख्यमाह्वानमात्रिका । प्रतिष्ठापनसंज्ञाऽथ सन्निधीकरणं तथा ॥१७३ ॥१६२॥ मेरे इस शुद्ध आत्माके लिए ऐसे कौन-कौनसे कार्य हैं अथवा ऐसे कौन-कौनसे पदार्थ हैं जो त्याग करने योग्य हैं, तथा ऐसे कौनसे पदार्थ हैं जो ग्रहण करने योग्य हैं। मुझे अब इस जन्म पर्यन्त क्या-क्या कार्य करने चाहिये और किन-किन कार्योंका त्याग कर देना चाहिये ॥१६३।। इस प्रकार चिन्तवन करनेसे सामायिक करनेवालेके आत्माका संवेग गुण बढ़ता है तथा संसार, शरीर और भोगोंसे अथवा संसारमें उत्पन्न हुए भोगोंसे वैराग्य बढ़ता है ।।१६४॥ तदनन्तर सामायिक करनेवाले व्रती श्रावकको साधु समाधि करनी चाहिये। अपने आत्माके शुद्ध स्वरूपका चिन्तवन करने अथवा पंचपरमेष्ठीके स्वरूपका चिन्तवन करनेको साधु समाधि कहते हैं। इस प्रकार चिन्तवन कर लेनेके अनन्तर उस व्रती श्रावकको माया मिथ्या निदान इन तीनों शल्योंको छोड़कर सामायिककी क्रिया करनी चाहिये ॥१६५।। आगे उसी सामायिकको क्रियाको बतलाते हैं। अनुष्टुप्, जाति, उपजाति, वसन्ततिलका आदि छन्दोंमें भगवान् जिनेन्द्रदेवके गुणोंकी स्तुति पढ़नी चाहिये, अथवा सिद्ध परमेष्ठीकी स्तुति करनी चाहिये या साधुओंके गुणोंकी स्तुति करनी चाहिये ।।१६६।। तदनन्तर भगवान् अरहन्तदेवकी कही हुई वाणीको अर्थात् सरस्वती देवीकी स्तुति करनी चाहिये और संसारकी शान्तिको कामनाके लिए शान्ति पाठ पढ़ना चाहिये ॥१६७॥ तदनन्तर समय पूरा हो जानेपर उस ध्यानको समाप्त कर देना चाहिये और फिर जिनकी स्तुति की है उनकी पूजा अपनी शक्तिके अनुसार करनी चाहिये ॥१६८॥ भगवान् अरहन्तदेव आदिको पूजा करनेके लिए यत्नाचारपूर्वक शुद्ध और प्रासुक जलसे स्नान करना चाहिये । फिर धुले हुए वस्त्रोंको आँखोंसे देखकर पहिनना चाहिये ॥१६९।। तदनन्तर जल चंन्दन आदि आठों द्रव्योंको किसी उत्तम थाल आदि पात्रमें लेकर धीरे धीरे अपने घरके चैत्यालयमें जाना चाहिये ॥१७॥ उस चैत्यालयमें विराजमान अरहन्तदेवके प्रतिबिम्बोंकी पूजा करनी चाहिये, सिद्धयन्त्रकी पूजा करनी चाहिये और सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्रको स्थापन कर उनकी पूजा करनी चाहिये ।।१७१।। व्रती श्रावकको अपनी शक्तिके अनुसार आत्माके शेष उत्तम क्षमा आदि गुणोंकी भी पूजा करनी चाहिये । यह पूजा करनेका विधान पहले आचार्योंके कहे अनुसार हमने अत्यन्त संक्षेपसे कहा है ॥१७२॥ पूजा पंचोपचारी होती है अर्थात् पांच प्रकारसे की जाती है। सबसे हले आह्वान करना चाहिये, फिर स्थापन करना चाहिये, फिर सन्निधापन या सन्निधिकरण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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