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________________ १३० - श्रावकाचार-संग्रह तत्र संसारिणो जीवाश्चतुर्गतिनिवासिनः । कर्मनोकर्मयुक्तत्वाद् यायिनोऽतीवदुःखिताः ॥१५५ पूर्वकर्मोदयाद् भावस्तेषां रागादिसंयुतः । जायतेऽशुद्धसंज्ञो यस्तस्मादबन्धोऽस्ति कर्मणाम् ॥१५६ एवं पूर्वापरीभूतो भावश्चान्योन्यहेतुकः । शक्यते न पृथक् कर्तुं यावत्संसारसंज्ञकः ॥१५७ एवं वाऽनादिसन्तानाभ्रमति स्म चतुर्गतौ । जन्ममृत्युजरातङ्कदुःखाक्रान्तः स प्राणभृत् ॥१५८ तत्र कश्चन भव्यात्मा काललब्धिवशादिह । कृत्स्नकर्मक्षयं कृत्वा संसाराद्धि प्रमुच्यते ॥१५९ अस्ति सद्दर्शनज्ञानचारित्राण्यत्र कारणम् । हेतुस्तेषां समुत्पत्तौ काललब्धिः परं स्वतः ॥१६० इत्यादि जगत्सवं स्वं चिन्तयेत्तन्मुहुर्मुहुः । नूनं संवेगवैराग्यवर्द्धनाय महामतिः ॥१६१ उक्तंच जगत्कायस्वभावौ वा संवेगवैराग्यार्थम् ॥५६ चिन्तनानन्तरं चेति चिन्तयेदात्मनो गतिम् । कोऽहं कुतः समायातः क्व यास्यामि जवादितः ॥१६२ करना चाहिये। फिर उन छह द्रव्योंमेंसे भी जीव दो प्रकार हैं-एक संसारी और दूसरे मुक्त । इस प्रकार जीवोंके भेद प्रभेदोंका तथा उनके स्वरूपका चिन्तवन करना चाहिये ॥१५४|| उन दोनों प्रकारके जीवोंमेंसे जो जीव चारों गतियोंमें निवास करते हैं, कर्म नोकर्म सहित होनेसे जो सदा परिभ्रमण करते रहते हैं और अत्यन्त दुखी रहते हैं उनको संसारी जीव कहते हैं ॥१५५।। इस संसारी जीवके पूर्व कर्मोंके उदय होनेसे गगद्वेष रूप अशुद्धभाव उत्पन्न होते हैं तथा उन्हीं रागद्वेष रूप अशुद्ध भावोंसे फिर नवीन कर्मोका बन्ध होता है ।।१५६|| जिस प्रकार बीजसे वृक्ष और वक्षसे बीज होता है अर्थात बीज वक्ष दोनों एक दसरेसे उत्पन्न होते रहते हैं उसी प्रकार पहले कर्मोंके उदयसे रागद्वेष और उन रागद्वेषसे नवीन कर्मोंका बन्ध. तथा उन कर्मोके उदयसे फिर रागद्वेष और उन रागद्वेषसे फिर नवीन कर्मोंका बन्ध होता रहता है। जब तक यह जीव संसारमें परिभ्रमण करता रहता है, तब तक यह कार्य कारण सम्बन्ध कभी छट नहीं सकता ॥१५७। इस प्रकार यह जीव अनादिकालसे नरक तियंच देव मनुष्य इन चारों गतियोंमें परिभ्रमण करता रहता है तथा जन्म, मरण, बुढ़ापा, रोग आदि अनेक दुःखोंसे दुःखी बना रहता है ॥१५८।। उन संसारी जीवोंमेंसे कोई भव्य जीव काललब्धिके प्राप्त हो जानेपर समस्त कर्मोंको नाश करके इस संसारसे छूटकर मुक्त हो जाता है। इस प्रकार सामायिक करते समय जीवोंके इन भेदोंके स्वरूप को चिन्तवन करना चाहिये ।।१५९।। इसके साथ यह भी चिन्तवन करना चाहिये कि उन कर्मोसे छुटने के लिए या मोक्ष प्राप्त करनेके लिए सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यकचा ही कारण हैं तथा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र उत्पन्न होनेके लिए काललब्धि कारण है और काललब्धि अपने आप प्रगट होती है ।।१६०।। इस प्रकार महा बुद्धिमान् श्रावकको आत्माका संवेग और वैराग्य गुण बढ़ानेके लिए अपने आत्माका चिन्तवन करना चाहिये तथा इसी संवेग और वैराग्य गुणको बढ़ानेके लिए इस समस्त जगत्का स्वरूप बार-बार चिन्तवन करना चाहिये ॥१६१।। तत्त्वार्थसूत्रमें लिखा भी है-जगत्का स्वरूप या स्वभाव चिन्तवन करनेसे संवेग बढ़ता है और शरीरका स्वभाव चिन्तवन करनेसे वैराग्य बढ़ता है ॥५६॥ इस प्रकार चिन्तवन कर लेनेके अनन्तर सामायिक करनेवालेको अपने आत्माका स्वरूप चिन्तवन करना चाहिये तथा विचार करना चाहिये कि "मैं कौन हूँ, कहाँसे आया हूँ, किस गति से आकर इस गतिमें जन्म लिया है और अब यहाँसे जो मुझे शीघ्र जाना है सो कहाँ जाना होगा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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