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________________ लाटीसंहिता १२९ यथा दोनश्च दुर्भाग्यो वस्तुसंख्यां चिकीर्षति । गृह्णाम्यशाश्वतं यावन्न गृह्णामि ततोऽधिकम् ॥१४९ निर्दिष्टानर्थदण्डस्य विरतिनम्निा गुणवतम् । अतीचारविनिर्मुक्तं नूनं निःश्रेयसे भवेत् ॥१५० शिक्षावतानि चत्वारि सन्ति स्याद्गृहमेधिनाम् । इतस्तान्यपि वक्ष्यामि पूर्वसूत्रानतिक्रमात ॥१५१ तत्सूत्रं यथा सामायिकप्रोषधोपवासोपभोगपरिभोगपरिमाणातिथिसंविभागवतसम्पन्नश्च ॥५४ अर्थात्सामायिकः प्रोक्तः साक्षात्साम्यावलम्बनम् । तदर्थ व्यवहारत्वात्पाठः कालासनादिमान् ॥१५२ तत्सूत्रं यथासमता सर्वभूतेषु संयमे शुभभावना । आतंरौद्रपरित्यागस्तद्धि सामायिकव्रतम् ॥५५ तदर्थात्प्रातरुत्थाय कुर्यादात्मादिचिन्तनम् । एकोऽहं शुद्धचिद्रूपो नाहं पौद्गलिकं वपुः ॥१५३ चिन्तनीयं ततश्चित्ते सूक्ष्मं षड्द्रव्यलक्षणम् । ततः संसारिणो मुक्ता जीवाश्चिन्त्या द्विधार्थतः ॥१५४ करना या परिमाण करना अनर्थदण्ड व्रतका अतिचार है ॥१४८॥ जैसे कोई अत्यन्त दरिद्र पुरुष है और उसके अशुभ कर्मका उदय अत्यन्त प्रबल हो रहा है, वह यदि ऐसा प्रमाण करना चाहे कि संसारमें जितने अनित्य पदार्थ हैं उनको ही ग्रहण करनेकी मेरी प्रतिज्ञा है । अनित्य पदार्थोंके सिवाय नित्य पदार्थोंको मैं कभी ग्रहण नहीं करूंगा यह परिमाण असम्भव पदार्थोंका है क्योंकि संसारमें ऐसा कोई पदार्थ नहीं है जो अनित्य न हो अथवा ऐसा पदार्थ होना सर्वथा असम्भव है जो सर्वथा नित्य हो अतएव ऐसा परिमाण करना उपभोगपरिभोगपरिमाणनामक व्रतका अतिचार है ॥१४९|| इस प्रकार अनर्थदंडविरतिनामक गुणवतका स्वरूप बतलाया। इस व्रतको अतिचार रहित पालन करनेसे ही आत्माका कल्याण होता है अतएव व्रती श्रावकोंको अतिचाररहित ही व्रतोंको पालन करना चाहिये ॥१५०॥ गृहस्थोंके पालन करने योग्य शिक्षावत चार हैं। अब सूत्रोंके अनुसार उन्हीं शिक्षाव्रतोंका वर्णन करते हैं ।।१५१॥ उन शिक्षाव्रतोंका वर्णन करनेवाला सूत्र यह है-सामायिक, प्रोषधोपवास, उपभोगपरिभोगपरिमाण और अतिथिसंविभाग ये चार शिक्षाव्रत हैं। व्रती गृहस्थ इन व्रतोंका भी पालन करता है ।।५४॥ ___आगे इन्हींका वर्णन करते हुए सबसे पहले सामायिकका स्वरूप वर्णन करते हैं। शुद्ध आत्माका साक्षात् चिन्तवन करना सामायिक है अथवा शुद्ध आत्माका चिन्तवन करनेके लिए योग्य समय में योग्य आसन से बैठकर सामायिकका पाठ करना भी सामायिक कहलाता है ॥१५२।। सो ही सामायिक पाठमें लिखा है-समस्त जीवोंमें समताभाव धारण करना, संयम पालन करनेके लिए सदा शुभ भावना रखना और आर्तध्यान तथा रौद्रध्यानका सर्वथा त्याग कर देना सामायिकवत कहलाता है ॥५५॥ ___ उस सामायिक व्रतको पालन करनेके लिए प्रातःकाल उठकर शुद्ध आत्माका चिन्तवन करना चाहिये । मैं अकेला हूँ, शुद्ध हूँ और चैतन्यस्वरूप हूँ, पुद्गलका बना हुआ शरीर मेरा स्वरूप नहीं है, पुद्गल जड़ है मैं चैतन्यरूप हूँ अतएव पुद्गलसे सर्वथा भिन्न हूँ। इस प्रकार चिन्तवन करना चाहिये ॥१५३॥ तदनन्तर अपने हृदयमें छहों द्रव्योंका सूक्ष्म स्वरूप चिन्तवन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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