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________________ १२८ श्रावकाचार-संग्रह तत्सूत्रं यथा कन्दपंकोत्कुच्यमौखर्यासमीक्ष्याधिकरणोपभोगपरिभोगानर्थक्यानि ।।५३ अस्ति कन्दर्पनामापि दोषः प्रोक्तवतस्य यः। रागोद्रेकात्प्रहासाहिमिश्रो वाग्योग इत्यपि ॥१४१ दोषः कौत्कुच्यसंज्ञोऽस्ति दुष्टकायक्रियादियुक् । पराङ्गस्पर्शनं स्वाङ्गैरर्थादन्याङ्गनादिषु ॥१४२ मौखर्यदूषणं नाम रतप्रायं वचःशतम् । अतीव गहितं धाष्टाद्यद्वात्यर्थं प्रजल्पनम् ॥१४३ असमीक्ष्याधिकरणमनल्पीकरणं हि यत् । अर्थात्स्वार्थमसमीक्ष्य वस्तुनोऽनवधानतः॥१४४ यथाऽऽहारकृते यावज्जलेनास्ति प्रयोजनम् । नेतव्यं तावदेवात्र दूषणं चान्यथोदितम् ॥१४५ भुज्यते सकृदेवात्र स्यादुपभोगसंज्ञकः । यथा सृक्चन्दनं माल्यमन्नपानौषधादि वा ॥१४६ परिभोगः समाख्यातो भुज्यते यत्पुनः पुनः । यथा योषिदलङ्कारवस्त्रागारगजादिकम् ॥१४७ आनर्थक्यं तयोरेव स्यादसम्भविनोद्वंयोः । अनात्मोचितसंख्यायाः करणादपि दूषणम् ॥१४८ उन अतिचारोंको कहनेवाला सूत्र यह है-कन्दर्प, कौत्कुच्य, मौखर्य, असमीक्ष्याधिकरण और उपभोगपरिभोगानर्थक्य ये पांच अनर्थदण्डव्रतके अतिचार हैं ॥५३॥ आगे इनका स्वरूप कहते हैं-रागकी तीव्रतासे हँसीसे मिले हुए अशिष्ट वचन कहना कन्दर्प कहलाता है। यह कन्दर्प भी अनर्थदण्डत्याग व्रतका पहला अतिचार है। कन्दर्प शब्दका अर्थ काम है। कामको बढ़ानेवाले जितने हँसीके वचन हैं अथवा जितने अशिष्ट वचन हैं उनके कहनेको कन्दर्प कहते हैं। ऐसे वचन कहनेसे परिणाम मलिन होते हैं तथा व्यर्थ ही पाप कर्मोका बन्ध होता है इसलिए व्रती श्रावकको इस अतिचारका त्याग कर देना चाहिए ॥१४१॥ रागको तीव्रतासे शरीरकी दुष्ट क्रिया करना कौत्कुच्य है। जैसे अपने शरीरसे अन्य स्त्रियोंका शरीर स्पर्श करना. भौंह चलाना, आँखें भटकाना आदि सब कामको बढानेवाली शरीरको चेष्टाओं शरीरकी क्रियाओंको कौत्कुच्य कहते हैं। इससे भी व्यर्थ ही पाप कर्मोका बन्ध होता है इसलिए व्रती श्रावकको इसका भी त्याग कर देना चाहिये ।।१४२॥ कामको बढ़ानेवाले अत्यन्त निन्दनीय सैकड़ों वचन कहना, अथवा धृष्टतापूर्वक बहुत वकवाद करना मौखर्य नामका अतिचार है। इससे भी व्यर्थ ही पापकर्मोका बन्ध होता है इसलिए व्रती श्रावकको इसका भी त्याग कर देना चाहिये ॥१४३।। अपने प्रयोजन या आवश्यकताका विचार किये विना असावधानीके साथ पदार्थोका अधिक संग्रह करना असमीक्ष्याधिकरण कहलाता है। व्रती श्रावकको इस अतिचारका भी त्याग कर देना चाहिये ॥१४४॥ जैसे भोजनादि बनाने के लिए जितने जलकी आवश्यकता हो उतना ही जल भरना चाहिये, उससे अधिक जल भरना अनर्थदंड है, अधिक जल भरनेसे व्यर्थका पाप लगता है अतएव आवश्यकतासे अधिक पदार्थों का संग्रह कभी नहीं करना चाहिये ॥१४५।। जो पदार्थ एक बार भोगे जाते हैं, एक बार काम में आते हैं उनको उपभोग कहते हैं जैसे माला, चन्दन, फूल, भोजन, पानी, औषध आदि ॥१४६।। जो पदार्थ बार-बार भोगने में आते हैं उनको परिभोग कहते हैं जैसे स्त्री, अलंकार, वस्त्र, घर, हाथी, घोड़े आदि ॥१४७।। उपभोग और परिभोग इन दोनोंको आवश्यकतासे अधिक इकट्ठा करना अनर्थदंडका अतिचार है। अथवा जिन पदार्थों की सम्भावना ही नहीं है, जो पदार्थ असम्भव हैं उनका परिमाण करना, अथवा जो पदार्थ अपनी योग्यतासे बाहर हैं, अपनी योग्यताके अनुसार जिन पदार्थोंका प्राप्त होना असम्भव है ऐसे पदार्थोका त्याग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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