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________________ लाटीसंहिता अस्ति पुद्गलनिक्षेपनामा दोषोऽत्र संयमे । इतो वा प्रेषणं तत्र पत्रिकाहेमवाससाम् ॥ १३३ उक्तातीचारनिर्मुक्तं स्याद्देशविरतिव्रतम् । कर्तव्यं व्रतिनाऽवश्यं हिंसातृष्णाविहानये ॥१३४ व्रतं चानर्थदण्डस्य विरतिर्गृहमेधिनाम् । द्वादशव्रतवृक्षाणामेतन्मूलमिवाद्वयम् ॥ १३५ एकस्यानर्थदण्डस्य परित्यागो न देहिनाम् । व्रतित्वं स्यादनायासान्नान्यथा यासकोटिभिः ॥१३६ स्वार्थं चान्यस्य संन्यासं विना कुर्यान कर्म तत् । स्वार्थश्चावश्यमात्रात्मास्वार्थः सर्वो न सर्वतः ॥ १३७ यथानाम विनोदार्थं जलादि-वनक्रीडनम् । कायेन मनसा वाचा तद्भेदा बहवः स्मृताः ॥१३८ कृतकारितानुमननैस्त्रि कालविषयं मनोवचः कायैः । परिहृत्य कर्मसकलं परमं नैष्कम्यंमवलम्बेत १३९ दोषाः सूत्रोदिताः पञ्च सन्त्यतीचारसंज्ञकाः । अनर्थदण्डत्यागस्य व्रतस्यास्यापि दूषिकाः || १४० १२७ करनेवाले नौकर चाकर अपना काम करते रहें इसके लिये अपनी उपस्थिति या देखरेख सूचित करने के लिये अपना शरीर दिखलाना या और किसी प्रयोजनके लिये मर्यादाके बाहर वालोंको अपना शरीर दिखलाकर अपना प्रयोजन सिद्ध कर लेना अथवा आँख आदि शरीरके अवयवोंसे मर्यादाके बाहर वालोंको कोई इशारा करना रूपानुपात नामका अतिचार कहलाता है । यह अतिचार भी इस देशव्रत में दोष लगानेवाला है इसलिये व्रती श्रावकको इसका भी त्याग कर देना चाहिये ||१३२ || अपनी मर्यादामें रहते हुए मर्यादाके बाहर सोना-चाँदी वस्त्र चिट्ठी-पत्री आदि कोई भी पदार्थ भेजना अथवा मर्यादाके बाहर वालोंको ढेले पत्थर फेंककर अपना कुछ भी प्रयोजन सिद्ध कर लेना पुद्गलक्षेप नामका अतिचार है । इस अतिचारसे भी इस व्रतका एकदेश भंग होता है इसलिये व्रती श्रावकको इसका भी त्याग कर देना चाहिये || १३३|| इस देशव्रतको धारण करनेवाले श्रावकोंको उचित है कि वे हिंसा और तृष्णा, ममत्व, लालसा, इन्द्रियोंके विषयोंकी लालसा - को दूर करनेके लिये ऊपर कहे हुए अतिचारोंको छोड़कर इस देशव्रतका पालन अवश्य करें ||१३४|| अब आगे अनर्थदण्डविरति नामके व्रतका स्वरूप बतलाते हैं । अनर्थदण्डोंका त्याग करने रूप अनर्थदण्डविरति नामके व्रतका पालन भी गृहस्थोंको अवश्य करना चाहिये क्योंकि यह अनर्थदण्डविरति नामका व्रत बारह व्रतरूपी वृक्षको अद्वितीय या सबसे मुख्य जड़ है || १३५|| इन अनर्थदण्डों में से किसी एक अनर्थदण्डका त्याग कर देना व्रत नहीं है क्योंकि एक-एक अनर्थदण्डका त्याग बहुत आसानीके या विना किसी परिश्रमके हो जाता है तथा समस्त अनर्थदण्डोंका त्याग करोड़ों परिश्रम से भी नहीं होता है || १३६ || जिसमें दूसरेके स्वार्थकी सिद्धि हो ऐसा कार्य सिवाय समाधिमरणके और कुछ नहीं करना चाहिये । वास्तवमें देखा जाय तो आत्माको अवश्य करने योग्य ऐसा आत्माका कल्याण करना ही स्वार्थ है । संसार सम्बन्धी और समस्त कार्य स्वार्थ नहीं हैं तथा वे पूर्णरूपसे स्वार्थ कभी नहीं हो सकते || १३७|| जैसे चित्त प्रसन्न करनेके लिये जलक्रीड़ा करना, वनक्रीड़ा करना आदि सब अनर्थदण्ड कहलाता है । उसको मनसे करना, वचनसे करना, कायसे करना आदि रूपसे उसके अनेक भेद हो जाते हैं ।। १३८ || मन वचन काय और कृत कारित अनुमोदन से भूत भविष्यत और वर्तमानकाल सम्बन्धी समस्त पाप रूप कार्योंका त्याग कर सबसे उत्तम उदासीन अवस्था धारण करनी चाहिये || १३९ || इस अनर्थदण्डत्याग व्रतके भी पाँच अतिचार हैं जो कि सूत्रकारने अपने सूत्रमें बतलाए हैं। ये अतिचार भी व्रतमें दोष लगाने वाले हैं इसलिए व्रती श्रावकको इसका भी त्याग कर देना चाहिए ॥ १४० ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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