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________________ भावकाचार-संग्रह कामतीव्राभिनिवेशो दोषोऽतीचारसंज्ञकः । दुर्दान्तवेदनाक्रान्तस्मरसंस्कारपीडितः ॥७८ ननु चास्ति स दुर्वारो दुस्त्याज्या मानसी क्रिया । ब्रह्मवतगृहीतस्य सतोऽत्र वद का गतिः ॥७९ उच्यते गतिरस्यास्ति वृद्धः सूओ प्रमाणिता। यथा कथञ्चिन्न त्याज्या नीता ब्रह्मव्रतक्रिया ॥८० उक्तं ब्रह्मव्रतं साङ्गमतिचारविजितम् । पालनीयं सदाचारैः स्वर्गमोक्षसुखप्रदम् ॥८१ उपाधिपरिमाणस्य सद्विधिश्चाधुनोच्यते । सति यत्रोवितानां स्यावतानां स्थितिसन्ततिः ॥८२ मुनिभिः सर्वतस्त्याज्यं तृणमात्रपरिग्रहम् । तत्संख्या गृहिभिः कार्या त्रसहिंसाविहानये ॥८३ अवश्यं द्रविणादीनां परिमाणं च परिग्रहे । गृहस्थेनापि कर्तव्यं हिंसातृष्णोपशान्तये ॥८४ परिमाणे कृते तस्मादर्वाग्मूर्छा प्रवर्तते । अभावान्मू.यास्तूवं मुनित्वमिव गीयते ॥८५ तस्मादात्मोचिताद्व्याद् ह्रासनं तद्वरं स्मृतम् । अनात्मोचितसङ्कल्पाद् ह्रासनं तन्निरर्थकम् ।।८६ बनात्मोचितसङ्कल्पाद ह्रासनं यन्मनीषया । कुर्युर्यद्वा न कुर्युर्वा तत्सर्वं व्योमचित्रवत् ॥८७ क्रिया करना अनंगक्रीडा नामका दोष कहलाता है ॥७७॥ काम सेवनकी तीव्र वेदनाके वशीभूत होकर कामके विकारसे अत्यन्त पीड़ित हुआ मनुष्य जो कामसेवनकी तीव्र लालसा रखता है उसको कामतीवाभिनिवेश नामका अतिचार कहते हैं ॥७८॥ यहांपर शंकाकार कहता है कि मनके विकारोंका त्याग करना अत्यन्त कठिन है फिर भला जिसने ब्रह्मचर्य अणुव्रत धारण कर लिया है और मनके विकारोंका त्याग कर नहीं सकता ऐसा मनुष्य उस व्रतका पालन किस प्रकार कर सकेगा, उसके व्रत पालन करनेका क्या उपाय है सो बतलाना चाहिए ॥७९।। ग्रन्थकार इस शंकाका उत्तर देते हुए कहते हैं कि ऐसे मनुष्योंके व्रत पालन करनेका उपाय भी है। जो कि वृद्ध पुरुषोंने, बड़े-बड़े आचार्योंने सूत्रोंमें बतलाया है। उसका अभिप्राय यही है कि जो ब्रह्मचर्यव्रत धारण किया है उसको जिस प्रकार बने उसी प्रकार पालन करना चाहिए, उसको किसी भी प्रकार छोड़ना नहीं चाहिये ॥८०।। इस प्रकार ब्रह्मचर्य अणुव्रतका स्वरूप कहा । अणुव्रतोंको धारण करनेवाले श्रावकोंको स्वर्ग और मोक्षके अनुपम सुख देनेवाला यह व्रत अतिचार रहित और भावनाओं सहित पालन करना चाहिए ।।८।। अब आगे परिग्रहके परिमाण करनेकी विधि कहते हैं। यह निश्चित है कि परिग्रहके परिमाण करनेसे ही ऊपर कहे हुए समस्त व्रत चिरकाल तक ठहर सकते हैं ।।८२॥ तृणमात्र भी परिग्रहका त्याग मुनियोंको पूर्णरूपसे कर देना चाहिए। तथा अणुव्रती श्रावकोंको सजीवोंकी हिंसाके त्यागका पालन करनेके लिए अथवा त्रसजीवोंकी रक्षा करनेके लिए उस परिग्रहका परिमाण नियत कर लेना चाहिए ।।८३।। हिंसा और तृष्णाको शान्त करनेके लिए गृहस्थोंको धन धान्य आदि परिग्रहका परिमाण अवश्य कर लेना चाहिए ।।८४॥ जो मनुष्य जितने परिग्रहका परिमाण कर लेता है उसकी लालसा वा मूर्छा उतने ही परिग्रहमें रहती है। उतने परिग्रहसे अधिक परिग्रहमें उसकी मूर्छा या लालसा नहीं रहती। किये हुए परिमाणसे अधिक परिग्रहमें उसकी मजका सर्वथा अभाव हो भाता है । अतएव किये हुए परिमाणके ऊपर वह परिमाण करनेवाला मुनिके समान समझा जाता है ।।८५।। अतएव अपने योग्य जो परिग्रह है उसमेंसे घटाना ही कल्याणकारी है। जो द्रव्य अपने योग्य नहीं है उसका घटाना या त्याग करना व्यर्थ है ॥८६।। जो परिग्रह या जो द्रव्य अपने लिए कभी संभव नहीं हो सकते उनका त्याग या उनका कम करना केवल मनके संकल्पसे होता है सतएव उनका त्याग करना या न करना दोनों ही आकाशके चित्रके समान हैं। भावार्थ-जैसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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