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________________ लाटीसंहिता ११९ स्वशरीरसंस्काराख्यो दोषोऽयं ब्रह्मचारिणः । सर्वतो मुनिना त्याज्यो देशतो गृहमेधिभिः ॥७० भावनाः पञ्च निर्दिष्टाः सर्वतो मुनिगोचराः । तत्रासक्तिर्गृहस्थानां वर्जनीया स्वशक्तितः ॥७१ लक्ष्यन्तेऽत्राऽप्यतोचाराः ब्रह्मचर्यव्रतस्य ये । पञ्चैवेति यथा सूत्रे सूक्ताः प्रत्यक्षवादिभिः ॥७२ तत्सूत्रं यथापरविवाहकरणेत्वरिकापरिगृहीतापरिगृहोतानङ्गक्रीडाकामतीव्राभिनिवेशाः ॥४८ परविवाहकरणं दोषो ब्रह्मव्रतस्य यः । व्यक्तो लोकप्रसिद्धत्वात्सुगमे प्रयासो वृथा ॥७३ अयं भावः स्वसम्बन्धिपुत्रादोंश्च विवाहयेत् । परवर्गविवाहांश्च कारयेन्नानुमोदयेत् ॥७४ इत्वरिका स्यात्पंश्चली सा द्विधा प्राग्यथोदिता । काचित्परिगृहीता स्यादपरिगृहीता परा॥७५ ताभ्यां सरागवागादिवपुःस्पर्शोऽथवा रतम । दोषोऽतीचारसंज्ञोऽपि ब्रह्मचर्यस्य हानये ॥७६ दोषश्चानङ्गक्रीडाख्यः स्वप्नादौ शुक्रविच्युतिः । विनापि कामिनीसङ्गाक्रिया वा कुत्सितोदिता ॥७७ अनेक प्रकारके अतिचार उत्पन्न करनेवाला है ॥६९।। ब्रह्मचर्य अणुव्रतको धारण करनेवाले ब्रह्मचारियोंको यह स्वशरीरसंस्कार नामका दोष भी एक प्रबल दोष है। मनियोंको इस । त्याग पूर्ण रूपसे कर देना चाहिये और गृहस्थोंको इसका त्याग एकदेश रूपसे करना चाहिये। यह ब्रह्मचर्यकी रक्षा करनेवाली पांचवीं भावना है ।।७०।। इस प्रकार ब्रह्मचर्यकी पांचों भावनाओंका निरूपण किया । इन भावनाओंका पूर्ण रीतिसे पालन मुनियोंसे ही होता है तथा गृहस्थोंको अपनी शक्तिके अनुसार इन सबमें आसक्त या लीन रहनेका त्याग कर देना चाहिये । तथा अपनी शक्तिके अनुसार इनमेंसे जितना त्याग बन सके उतना त्याग कर देना चाहिये। इस प्रकार पांचों भावनाओंका स्वरूप बतलाया ।।७१।। इस ब्रह्मचर्य व्रतके भी पाँच अतिचार हैं जो सर्वज्ञदेवने बतलाये हैं तथा जो सूत्रकारने अपने सूत्रमें लिखे हैं ॥७२।। __ वह सूत्र इस प्रकार है-दूसरेके पुत्र-पुत्रियोंका विवाह करना, कुलटा विवाहिता स्त्रीके यहाँ आना जाना, अविवाहिता कुलटा स्त्रीके यहाँ आना जाना, अनंगक्रीडा करना और कामसेवनकी तीव्र लालसा रखना ये पाँच ब्रह्मचर्य अणुव्रतके अतिचार हैं ॥४८॥ . __ आगे इन्हींका स्वरूप बतलाते हैं-दूसरेके पुत्र पुत्रियोंका विवाह करना परविवाहकरण कहलाता है । यह भी ब्रह्मचर्यका एक अतिचार या दोष है। दूसरेके पुत्र पुत्रियोंका विवाह करना संसारमें प्रसिद्ध है, सब कोई जानता है अतएव सुगम होनेसे इसके स्वरूपके कहने में परिश्रम करना व्यर्थ है ।।७३।। इसका भी अभिप्राय यह है कि अपनेसे सम्बन्ध रखनेवाले पुत्र-पत्रियोंका तो विवाह कर देना चाहिए परन्तु जिनसे अपना कोई सम्बन्ध नहीं है ऐसे पुत्र-पुत्रियोंका विवाह न तो कराना चाहिए और न उसकी अनुमोदना करनी चाहिए। यह परविवाहकरण ब्रह्मचर्य अणुव्रतका पहला अतिचार है ॥७४।। इत्वरिका शब्दका अर्थ पुंश्चली या व्यभिचारिणी स्त्री है इसोको कुलटा कहते हैं। वह दो प्रकारको होती है-एक परिगृहीता और दूसरी अपरिगृहीता। इन दोनोंका स्वरूप पहले अच्छी तरह कह चुके हैं ॥७५॥ परिगृहीता व्यभिचारिणी स्त्री और अपरिगृहीता व्यभिचारिणी स्त्री इन दोनोंके साथ रागपूर्वक बातचीत करना, शरीर स्पर्श करना, अथवा क्रीडा करना अतिचार है, यह अतिचार या दोष ब्रह्मचर्यको घात करनेवाला है ॥७६।। स्वप्न में वीर्यपात हो जाना, अथवा किसी भी स्त्रीके समागमके विना खोटी चेष्टा करना, खोटी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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