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________________ लाटीसंहिता १२१ प्रत्यग्रजन्मनीहेदमत्यन्ताभावलक्षणम् । तत्त्यागोऽपि वरं कैश्चिदुच्यते सारवजितम् ॥८८ तत्रोत्सर्गो नृपर्याय स्थितिमात्रकृते धनम् । रक्षणीयं व्रतस्थैस्तैस्त्याज्यं शेषमशेषतः ॥८९ अपवादस्तूपात्तानां व्रतानां रक्षणं यथा । स्याद्वा न स्यात्तु तद्धानिः संख्यातव्यस्तथोपधिः ॥९० रक्षार्थं तद्वतस्यापि भावनाः पञ्च सम्मताः । भावनीयाश्च ता नित्यं तथा सूत्रेऽपि लक्षिताः ॥९१ तत्सूत्रां यथा मनोज्ञामनोजेन्द्रियविषयरागद्वेषवर्जनानि पञ्च ॥४९ इन्द्रियाणि स्फुटं पञ्च पञ्च तद्विषयाः स्मृताः । यथास्वं तत्परित्यागभावनाः पञ्च नामतः ॥९२ पञ्चस्वेषु मनोज्ञेषु भावना रागवर्जनम् । अमनोज्ञेषु तेषूच्चैर्भावना द्वेषवर्जनम् ॥९३ अयमों यदीष्टार्थसंयोगोऽस्ति शुभोदयात् । तदा रागो न कर्तव्यो हिरण्याद्यपकर्षता ॥९४ आकाशके चित्रोंका होना कल्पना मात्र होनेसे असंभव है। आकाशमें चित्र हो नहीं सकते उसी प्रकार जिन पदार्थोंका प्राप्त होना कभी संभव नहीं है उन पदार्थोंका त्याग करना या परिमाण करना व्यर्थ है। उनके त्याग करने या परिमाण करनेको व्रत नहीं कह सकते ॥८७॥ इस विषयमें कोई कोई लोग ऐसा भी कहते हैं कि इस जन्ममें जिस पदार्थका प्राप्त होना अत्यन्त असंभव है अथवा जो पदार्थ अत्यन्त सारहीन है व्यर्थके समान है उसका त्याग करना भी अच्छा है ॥८८॥ इस परिग्रहके त्याग करनेका उत्सर्ग मार्ग यह है कि इस मनुष्य पर्यायको स्थिर रखने के लिए जितने धनकी आवश्यकता है उतना धन तो रख लेना चाहिए और बाकीका जितना धन है या जितना परिग्रह है उस सबका अणुव्रती श्रावकोंको त्याग कर देना चाहिए ॥८९॥ इसका भी आवश्यक अपवाद यह है कि जो व्रत धारण कर लिये हैं उनकी रक्षा जिस प्रकार हो जाय जितने धन या परिग्रहसे हो जाय अथवा जितना धन या परिग्रह रखनेसे उन व्रतोंमें किसी प्रकारकी हानि न हो उतने परिग्रहका परिमाण कर लेना चाहिए ।।९०॥ अन्य व्रतोंके समान इस परिग्रहत्यागवतकी रक्षा करनेके लिए भी पाँच भावनाएं हैं जो कि तत्त्वार्थसूत्रमें बतलाई हैं। अणुव्रती श्रावकोंको उनका भी पालन करते रहना चाहिए ॥९१|| __उन भावनाओंको कहनेवाला सूत्र यह है-मनोज्ञ और अमनोज्ञ जो इन्द्रियोंके विषय हैं उनमें रागद्वेषका त्याग कर देना परिग्रहत्यागकी पांच भावनाएं हैं ॥४९॥ ___ आगे उन्हींका विशेष वर्णन करते हैं-इन्द्रियाँ पाँच हैं और उनके विषय भो पांच हैं। उनका यथायोग्य रीतिसे त्याग करना ही पाँच भावनाएं हैं ।।१२।। इसका भी अर्थ यह है कि पाँचों इन्द्रियोंके जो विषय हैं उनमें कुछ मनोज्ञ विषय रहते हैं और कुछ अमनोज्ञ विषय रहते हैं। उनमें से जो मनोज्ञ विषय हैं इन्द्रियोंको अच्छे लगनेवाले विषय हैं उनमें राग नहीं करना चाहिए तथा जो अमनोज्ञ विषय है इन्द्रियोंको बुरे लगनेवाले विषय हैं उनमें द्वेष नहीं करना चाहिए। पांचों इन्द्रियोंको अच्छे लगनेवाले विषयोंमें रागका त्याग कर देना और बुरे लगनेवाले विषयोंमें द्वेषका त्याग कर देना ही इस व्रतकी भावनाएं हैं ॥१३॥ इसका भी खुलासा यह है कि यदि शुभ कर्मोके उदयसे इष्ट पदार्थोका संयोग हो जाय, सोना, चांदी, भोजन, वस्त्र आदि उत्तम पदार्थ प्राप्त हो जायँ तो सोना चांदी आदि पदार्थोको घटानेकी इच्छा करनेवाले श्रावकको उन पदार्थों में राग नहीं करना चाहिए । शांत और मध्यस्थ भावोंसे उसका उपभोग करना चाहिए ।।९४॥ यदि अशुभ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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